वर्णसंकर संतानों की उत्पत्ति का विस्तार से वर्णन

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 48 में वर्णसंकर संतानों की उत्पत्ति का विस्तार से वर्णन हुआ है।[1]-

युधिष्ठिर द्वारा मनुष्यों के कर्म एवं धर्म के बारे में पूछना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! धन पाकर या धन के लोभ में आकर अथवा कामना के वशीभूत होकर जब उच्‍च वर्ण की स्‍त्री नीच वर्ण के पुरुष के साथ सम्‍बन्‍ध स्‍थापित कर लेती है तब वर्णसंकर संतान उत्‍पन्‍न होती है। वर्णों का निश्‍चय अथवा ज्ञान न होने से भी वर्णसंकर की उत्‍पत्ति होती है। इस रीति से जो वर्णों के मिश्रण द्वारा उत्‍पन्‍न हुए जो मनुष्‍य हैं, उनका क्‍या धर्म है? और कौन-कौन-से कर्म हैं? यह मुझे बताइये।

भीष्‍म का संवाद

भीष्‍म जी ने कहा- बेटा! पूर्वकाल में प्रजापति ने यज्ञ के लिये केवल चार वर्णों और उनके पृथक-पृथक कर्मों की ही रचना की थी। ब्राह्मण की जो चार भार्याएँ बतायी गयी हैं, उनमें से दो स्त्रियाँ-ब्राह्मणी और क्षत्रिया के गर्भ से ब्राह्मण ही उत्‍पन्‍न होता है और शेष दो वैश्‍या और शूद्र स्त्रियों के गर्भ से जो पुत्र उत्‍पन्‍न होते हैं, वे ब्राह्मण से हीन क्रमश: माता की जाति के समझे जाते हैं। शूद्रा के गर्भ से उत्‍पन्‍न हुआ ब्राह्मण का ही जो पुत्र है, वह शव से अर्थात शूद्र से पर-उत्‍कृष्‍ट बताया गया है; इसीलिये ऋषिगण उसे पारशव कहते हैं। उसे अपने कुल की सेवा करनी चाहिये और अपने इस सेवारूप आचार का कभी परित्‍याग नहीं करना चाहिये। शूद्रापुत्र सभी उपयों का विचार करके अपनी कुल-परम्‍परा का उद्धार करे। वह अवस्‍था में ज्‍येष्‍ठ होने पर भी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य की अपेक्षा छोटा ही समझा जाता है, अत: उसे त्रैवर्णिकों की सेवा करते हुए दानपरायण होना चाहिये। क्षत्रिय की क्षत्रिया, वैश्‍या और शूद्रा- ये तीन भार्याएँ होती हैं। इनमें से क्षत्रिया और वैश्‍या के गर्भ से क्षत्रिय के सम्‍पर्क से जो पुत्र उत्‍पन्‍न होता है, वह क्षत्रिय ही होता है। तीसरी शूद्रा के गर्भ से हीन वर्ण वाले शूद्र ही उत्‍पन्‍न होते हैं; जिनकी उग्र संज्ञा है। ऐसा धर्मशास्‍त्र का कथन है। वैश्‍य की दो भार्याएँ होती हैं- वैश्‍या और शूद्रा। उन दोनों के गर्भ से जो पुत्र उत्‍पन्‍न होता है, वह वैश्‍य ही होता है। शु्द्र की एक ही भार्या होती है शूद्रा, जो शूद्र को ही जन्‍म देती है। अत: वर्णों में नीचे दर्जे का शूद्र यदि गुरुजनों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्‍यों की स्त्रियों के साथ समागम करता है तो वह चारों वर्णों द्वारा निन्दित वर्णबहिष्‍कृत (चाण्‍डाल आदि) को जन्‍म देता है। क्षत्रिय ब्राह्मणों के साथ समागम करने पर उसके गर्भ से ‘सूत’ जाति का पुत्र उत्‍पन्‍न करता है, जो वर्ण बहिष्‍कृत और स्‍तुति-कर्म करने वाला (एवं रथी का काम करने वाला) होता है। उसी प्रकार वैश्‍य यदि ब्राहाणी के साथ समागम करे तो वह संस्‍कारभ्रष्‍ट ‘वैदेहक’ जाति वाले पुत्र को उत्‍पन्‍न करता है, जिससे अन्‍त:पुर की रक्षा आदि का काम लिया जाता है और इसीलिये जिसको ‘मौद्गल्य‘ भी कहते हैं। इसी तरह शूद्र ब्राहाणी के साथ समागम करके अत्‍यन्‍त भयंकर चाण्‍डाल को जन्‍म देता है, जो गाँव के बाहर बसता है और वध्‍य पुरुषों को प्राणदण्‍ड आदि देने का काम करता है।

वर्णसंकर संतानों की उत्पत्ति का वर्णन

प्रभो! बुद्धिमानों में श्रेष्‍ठ युधिष्ठिर! ब्राह्मणी के साथ नीच पुरुषों का संसर्ग होने पर ये सभी कुलांगार पुत्र उत्‍पन्‍न होते हैं और वर्णसंकर कहलाते हैं। वैश्‍य के द्वारा क्षत्रिय जाति की स्‍त्री के गर्भ से उत्‍पन्‍न होने वाला पुत्र वन्‍दी और मागध कहलाता है। वह लोगों की प्रशंसा करके अपनी जीविका चलाता है। इसी प्रकार यदि शूद्र क्षत्रिय जाति की स्‍त्री के साथ प्रतिलोम समागम करता है तो उससे मछली मारने वाले निषाद जाति की उत्‍पति होती है, और शूद्र यदि वैश्‍य जाति की स्‍त्री के साथ ग्राम्‍यधर्म (मैथून) का आश्रय लेता है तो उससे ‘आयोगव’ जाति का पुत्र उत्‍पन्‍न होता है जो बढ़ई का काम करके अपने कमाये हुए धन से जीवन का निर्वाह करता है। ब्राह्मणों को उससे दान नहीं लेना चाहिये। ये वर्णसंकर भी जब अपनी ही जाति की स्‍त्री के साथ समागम करते हैं, तब अपने ही समान वर्ण वाले पुत्रों को जन्‍म देते हैं और जब अपने से हीन जाति की स्‍त्री से संसर्ग करते हैं, तब नीच संतानों की उत्‍पति होती है। ये संतानें अपनी माता की जाति की समझी जाती हैं। जैसे चार वर्णों में से अपने और अपने से एक वर्ण नीचे की स्त्रियों से उत्‍पन्‍न किये जाने वाले पुत्र प्रधान वर्ण से ब्राहय-माता की जाति वाले होते हैं, उसी प्रकार ये नौ- अम्‍बष्‍ठ, पारशव, उग्र, सूत, वैदेहक, चाण्‍डाल, मागध, निषाद और आयोगव-अपनी जाति में और अपने-से नीचे वाली जाति में जब संतान उत्‍पन्‍न करते हैं, तब वह संतान पिता की ही जाति वाली होती है और जब एक जाति का अन्‍तर देकर नीचे की जातियों में संतान उत्‍पन्‍न करते हैं, तब वे संताने पिता की जाति से हीन माताओं की जाति वाली होती है। इस‍ प्रकार वर्णसंकर मनुष्‍य भी समान जाति की स्त्रियों में अपने ही समान वर्ण वाले पुत्रों की उत्‍पति करते हैं और यदि परस्‍पर विभिन्‍न जाति की स्त्रियों से उनका संसर्ग होता है तो वे अपनी अपेक्षा भी निन्‍दनीय संतानों को ही जन्‍म देते हैं। जैसे शूद्र ब्राह्मणी के गर्भ से चाण्‍डाल नामक बाहय (वर्ण-बहिष्‍कृत) पुत्र उत्‍पन्‍न करता है, उसी प्रकार उस ब्राहय जाति का मनुष्‍य भी ब्राह्मण आदि चारों वर्णों की एवं बाह्यतर जाति की स्त्रियों के साथ संसर्ग करके अपनी अपेक्षा भी नीच जाति वाला पुत्र पैदा करता है। इस तरह ब्राहय और ब्राह्तर जाति की स्त्रियों से समागम करने पर प्रतिलोम वर्ण संकरों की सृष्टि बढ़ती जाती है। क्रमश: हीन-से-हीन जाति के बालक जन्‍म लेने लगते हैं। इन संकर जातियोंकी संख्‍या सामान्‍यत: पंद्रह है। अगम्‍या स्‍त्री के साथ समागम करने पर वर्णसंकर संतान की उत्‍पत्ति होती है। मागध जाति की सैरन्‍ध्री स्त्रियों से यदि ब्राहय जातिय पुरुषों का संसर्ग हो तो उससे जो पुत्र उत्‍पन्‍न होता है वह राजा आदि पुरुषों के श्रृंगार करने तथा उनके शरीर में अंगराग लगाने आदि की सेवाओं का जानकार होता है और दास न होकर भी दासवृति से जीवन निर्वाह करने वाला होता है। मागधों के आवान्‍तर भेद सैरन्‍ध्र जाति की स्‍त्री से यदि आयोगव जाति का पुरुष समागम करे तो वह आयोगव जाति का पुत्र उत्‍पन्‍न करता है, जो जंगलों में जाल बिछाकर पशुओं को फँसाने का काम करके जीवन निर्वाह करता है। उसी जाति की स्‍त्री के साथ यदि वैदेह जाति का पुरुष समागम करता है तो वह मदिरा बनाने वाले मैरेयक जाति के पुत्र को जन्‍म देता है।[2]

निषाद के वीर्य और मागध सैरन्‍ध्री के गर्भ से मद्गुर जाति का पुरुष उत्‍पन्‍न होता है, जिसका दूसरा नाम दास भी है। वह नाव से अपनी जीविका चलाता है। चाण्‍डाल और मागधी सैरन्‍ध्री के संयोग से श्‍वपाक नाम से प्रसिद्ध अधम चाण्‍डाल की उत्‍पति होती है। वह मुर्दो की रखवाली का काम करता है। इस प्रकार मागध जाति की सैरन्‍ध्री स्‍त्री आयोग व आदि चार जातियों से समागम करके माया से जीविका चलाने वाले पूर्वोक्‍त चार प्रकार के क्रूर पुत्रों को उत्‍पन्‍न करती है। इनके सिवा दूसरे भी चार प्रकार के क्रुर पुत्रों को उत्‍पन्‍न करती है। इनके सिवा दूसरे भी चार प्रकार के पुत्र मागधी सैरन्‍ध्री उत्‍पन्‍न होते हैं। इनके सिवा दूसरे भी चार प्रकार के पुत्र मागधी सैरन्‍ध्री से उत्‍पन्‍न होते हैं जो उसके सजातीय अर्थात मांस, स्‍वादुकर, क्षौद्र और सौगन्‍ध-इन चार नामों से प्रसिद्धि होती है।। आयोगव जाति की पापिष्‍ठा स्‍त्री वैदेह जाति के पुरुष से समागम करके अत्‍यन्‍त क्रुर, मायाजीवी पुत्र उत्‍पन्‍न करती है। वही निषाद के संयोग से मद्रनाभ नामक जाति को जन्‍म देती है, जो गदहे की सवारी करने वाली होती है। वही पापिष्‍ठा स्‍त्री जब चाण्‍डाल से समागम करती है तब पुल्‍कस जातिको जन्‍म देती है। पुल्‍कस गधे, घोड़े और हाथी के मांस खाते हैं। वे मुर्दो पर चढ़े हुए कफ़न लेकर पहनते और फुटे बर्तन में भोजन करते हैं। इस प्रकार ये तीन नीच जाति के मनुष्‍य आयोगवी की संताने हैं। निषाद जाति की स्‍त्री का वैदेहक जाति के पुरुष से संसर्ग हो तो क्षुद्र, अन्ध्र और कारावर नामक जाति वाले पुत्रों की उत्‍पति होती है। इनमें से क्षुद्र और अन्‍ध्र तो गॉंव से बाहर रहते हैं और जंगली पशुओं की हिसा करके जीविका चलाते है तथा कारावर मृत पशुओं के चमड़े का कारोबार करता हैं। इसलिये चर्मकार या चमार कहलाता है। चाण्‍डाल पुरुष और निषाद जाति की स्‍त्री के संयोग से पाण्‍डुसौ पाक जाति का जन्‍म है। यह जाति बाँस की डलिया आदि बनाकर जीविका चलाती है। वैदेह जाति की स्‍त्री के साथ निषाद का सम्‍पर्क होने पर आहिण्‍डक का जन्‍म होता है, किंतु वही स्‍त्री जब चाण्‍डाल के साथ सम्‍पर्क करती है तब उससे सौपाक की उत्‍पति होती है। सौपाक की जीविका-वृति चाण्‍डाल के ही तुल्‍य है। निषाद जाति की स्‍त्री में चाण्‍डाल के वीर्य से अन्‍तेवसायी का जन्‍म होता है। इस जाति के लोग सदा श्‍मशान में ही रहते है। निषाद आदि बाह्यजाति के लोग भी उसे बहिष्‍कृत या अछूत समझते हैं। इस प्रकार माता-पिता के व्‍यतिक्रम (वर्णान्‍तर के संयोग)- से ये वर्णसंकर जातियाँ उत्‍पन्‍न होती हैं। इनमें से कुछ की जातियाँ तो प्रकट होती हैं और कुछ की गुप्‍त। इन्‍हें इनके कर्मो से ही पहचानना चाहिये। शास्‍त्रों में चारों वर्णों के धर्मों का निश्‍चय किया गयाहै औरो के नहीं। धर्महीन वर्णंसकर जातियों मे से किसी के वर्णसम्‍बन्‍धी भेद और उपभेदों की भी यहाँं कोई नियत संख्‍या नहीं है। जो जाति का विचार न करके स्‍वेच्‍छानुसार अन्‍य वर्ण की स्त्रियाँ के साथ समागम करते हैं तथा जो यज्ञों के अधिकार और साधु पुरुषों से बहिष्‍कृत हैं, ऐसे वर्णब्रह्य मनुष्‍यों से ही वर्णसंकर संतानें उत्‍पन्‍न होती है और मनुष्‍यों से ही अपनी रुचि के अनुकुल कार्य करके भिन्‍न–भिन्‍न प्रकार की आजीविका तथा आश्रय को अपनाती है। ऐसे लोग सदा लोहे के आभूषण पहनकर चौराहों में, मरघट में, पहाड़ों पर और वृक्षों के नीचे निवास करते हैं। इन्‍हें चाहिये कि गहने तथा अन्‍य उपकरणों को बनायें तथा अपने उद्योग-धन्‍धों से जीविका चलाते हुए प्रकट रूप से निवास करें। पुरुषसिंह! यदि ये गौ और ब्राह्मणों की सहायता करें, क्रूरतापूर्ण कर्म को त्‍याग दें, सब पर दया करें, सत्‍य बोलें, दूसरों के अपराध क्षमा करें और अपने शरीर को कष्‍ट में डालकर भी दूसरों की रक्षा करें तो इन वर्णसंकर मनुष्‍यों की भी पारमार्थिक उन्‍नति हो सकती है- इसमें संशय नहीं है।[3]

राजन! जैसा ऋषि-मुनियों ने उपदेश किया है, उसके अनुसार बतायी हुई वर्ण एवं ब्राह्यय जाति की स्त्रियों में बुद्धिमान मनुष्‍य को अपने हित का भलीभाँती विचार करके ही संतान उत्‍पन्‍न करनी चाहिये, क्‍योंकि नीच योनि में उत्‍पन्‍न हुआ पुत्र भवसागर से पार जाने की इच्‍छा वाले पिता को उसी प्रकार डुबोता है, जैसे गले में बँधा हुआ पत्‍थर तैरने वाले मनुष्‍य को पानी के अतलगर्त में निमग्‍न कर देता है। संसार में कोई मूर्ख हो या विद्वान, काम और क्रोध के वशीभूत हुए मनुष्‍य को नारियाँ अवश्‍य ही कुमार्ग पर पहुँचा देती है। इस जगत में मनुष्‍यों को कलंकित कर देना नारियों का स्‍वभाव है, अत: विवेकी पुरुष युवती व स्त्रियों में अधिक आसक्‍त नही होते हैं। युधिष्ठिर ने पूछा-पितामह! जो चारों वर्णों से बहिष्‍कृत, वर्णसंकर मनुष्‍य से उत्‍पन्‍न और अनार्य होकर भी ऊपर से देखने में आर्य-सा प्रतीत हो रहा हो उसे हम लोग कैसे पहचान सकते है? भीष्‍म जी ने कहा- युधिष्ठिर! जो कलुषित योनि में उत्‍पन्‍न हुआ है, वह ऐसी नाना प्रकार की चेष्‍टाओं से युक्‍त होता है, जो सत्‍पुरुषों के आचार से विपरीत है; अत: उसके कर्मों से ही उसकी पहचान होती है। इसी प्रकार सज्‍जनोचित आचरणों से योनि की शुद्धता का ज्ञान प्राप्‍त करना चाहिये। इस जगत में अनार्यता, अनाचार, क्रूरता और कर्मण्‍यता आदि दोष मनुष्‍य को कलुषित योनि से उत्‍पन्‍न (वर्णसंकर) सिद्ध करते हैं। वर्णसंकर पुरुष अपने पिता या माता के अथवा दोनो के ही स्‍वभाव का अनुसरण करता है। वह किसी तरह अपनी प्रकृति को छिपा नहीं सकता। जैसे बाघ अपनी चित्र-विचित्र खाल और रूप के द्वारा माता-पिता के समान ही होता है, उसी प्रकार मनुष्‍य भी अपनी योनि का अनुसरण करता है। यद्यपि कुल और वीर्य गुप्‍त रहते हैं अर्थात कौन किस कुल में और किसके वीर्य से उत्‍पन्‍न हुआ है, यह बात ऊपर से प्रकट नहीं होती है तो भी जिसका जन्‍म संकर-योनि से हुआ है, वह मनुष्‍य थोड़ा-बहुत अपने पिता के स्‍वभाव का आश्रय लेता ही है। जो कृत्रिम मार्ग का आश्रय लेकर श्रेष्‍ठ पुरुषों के अनुरूप आचरण करता है, वह सोना है या काँच-शुद्ध वर्ण का है या संकर वर्ण का? इसका निश्‍चय करते समय उसका स्‍वभाव ही सब कुछ बता देता है। संसार के प्राणी नाना प्रकार के आचार-व्‍यवहार में लगे हुए हैं, भाँति-भाँति के कर्मों में तत्‍पर हैं; अत: आचरण के सिवा ऐसी कोई वस्‍तु नहीं है जो जन्‍म के रहस्‍य को साफ तौर पर प्रकट कर सके। वर्णसंकर को शास्‍त्रीय बुद्धि प्राप्‍त हो जाये तो भी वह उसके शरीर को स्‍वभाव से नहीं हटा सकती। उत्तम, मध्‍यम या निकृष्‍ट जिस प्रकार के स्‍वभाव से उसके शरीर का निर्माण हुआ है, वैसा ही स्‍वभाव उसे आनन्‍ददायक जान पड़ता है। ऊंची जाति का मनुष्‍य भी यदि उत्तमशील अर्थात आचरण से हीन हो तो उसका सत्‍कार न करें और शूद्र भी यदि धर्मज्ञ एवं सदाचारी हो तो उसका विशेष आदर करना चाहिये। मनुष्‍य अपने शुभाशुभ कर्म, शील, आचरण और कुल के द्वारा अपना परिचय देता है। यदि उसका कुल नष्‍ट हो गया हो तो भी वह अपने कर्मों द्वारा उसे फिर शीघ्र ही प्रकाश में ला देता है। इन सभी उपर बतायी हुई नीच योनियों में तथा अन्‍य नीच जातियों में भी विद्वान पुरुष को संतानोत्‍पति नहीं करनी चाहिये। उनका सर्वथा परित्‍याग करना ही उचित है।[4]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 48 श्लोक 1-11
  2. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 48 श्लोक 12-20
  3. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 48 श्लोक 21-35
  4. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 48 श्लोक 36-50

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द्वारा मतंग को समझाना | मतंग की तपस्या और इन्द्र का उसे वरदान | वीतहव्य के पुत्रों से काशी नरेशों का युद्ध | प्रतर्दन द्वारा वीतहव्य के पुत्रों का वध | वीतहव्य को ब्राह्मणत्व प्राप्ति की कथा | नारद द्वारा पूजनीय पुरुषों के लक्षण | नारद द्वारा पूजनीय पुरुषों के आदर-सत्कार से होने वाले लाभ का वर्णन | वृषदर्भ द्वारा शरणागत कपोत की रक्षा | वृषदर्भ को पुण्य के प्रभाव से अक्षयलोक की प्राप्ति | भीष्म द्वारा यूधिष्ठिर से ब्राह्मण के महत्त्व का वर्णन | भीष्म द्वारा श्रेष्ठ ब्राह्मणों की प्रशंसा | ब्रह्मा द्वारा ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मण प्रशंसा विषयक इन्द्र और शम्बरासुर का संवाद | दानपात्र की परीक्षा | पंचचूड़ा अप्सरा का नारद से स्त्री दोषों का वर्णन | युधिष्ठिर के स्त्रियों की रक्षा के विषय में प्रश्न | भृगुवंशी विपुल द्वारा योगबल से गुरुपत्नी की रक्षा | विपुल का देवराज इन्द्र से गुरुपत्नी को बचाना | विपुल को गुरु देवशर्मा से वरदान की प्राप्ति | विपुल को दिव्य पुष्प की प्राप्ति और चम्पा नगरी को प्रस्थान | विपुल का अपने द्वारा किये गये दुष्कर्म का स्मरण करना | देवशर्मा का विपुल 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शाप | तारकासुर के भय से देवताओं का ब्रह्मा की शरण में जाना | ब्रह्मा का देवताओं को आश्वासन | देवताओं द्वारा अग्नि की खोज | गंगा का शिवतेज को धारण करना और फिर मेरुपर्वत पर छोड़ना | कार्तिकेय और सुवर्ण की उत्पत्ति | महादेव के यज्ञ में अग्नि से प्रजापतियों और सुवर्ण की उत्पत्ति | कार्तिकेय की उत्पत्ति और उनका पालन-पोषण | कार्तिकेय का देवसेनापति पद पर अभिषेक और तारकासुर का वध | विविध तिथियों में श्राद्ध करने का फल | श्राद्ध में पितरों के तृप्ति विषय का वर्णन | विभिन्न नक्षत्रों में श्राद्ध करने का फल | पंक्तिदूषक ब्राह्मणों का वर्णन | पंक्तिपावन ब्राह्मणों का वर्णन | श्राद्ध में मूर्ख ब्राह्मण की अपेक्षा वेदवेत्ता को भोजन कराने की श्रेष्ठता | निमि का पुत्र के निमित्त पिण्डदान | श्राद्ध के विषय में निमि को अत्रि का उपदेश | विश्वेदेवों के नाम तथा श्राद्ध में त्याज्य वस्तुओं का वर्णन | पितर और देवताओं का श्राद्धान्न से अजीर्ण होकर ब्रह्मा के पास जाना | श्राद्ध से तृप्त हुए पितरों का आशीर्वाद | भीष्म का युधिष्ठिर को गृहस्थ के धर्मों का रहस्य बताना | वृषादर्भि तथा सप्तर्षियों की कथा | भिक्षुरूपधरी इन्द्र द्वारा कृत्या का वध तथा सप्तर्षियों की रक्षा | इन्द्र द्वारा कमलों की चोरी तथा धर्मपालन का संकेत | अगस्त्य के कमलों की चोरी तथा ब्रह्मर्षियों और राजर्षियों की धर्मोपदेशपूर्ण शपथ | इन्द्र का चुराये हुए कमलों को वापस देना | सूर्य की प्रचण्ड धूप से रेणुका के मस्तक और पैरों का संतप्त होना | जमदग्नि का सूर्य पर कुपित होना | छत्र और उपानह की उत्पत्ति एवं दान की प्रशंसा | गृहस्थधर्म तथा पंचयज्ञ विषयक पृथ्वीदेवी और श्रीकृष्ण का संवाद | तपस्वी सुवर्ण और मनु का संवाद | नहुष का ऋषियों पर अत्याचार | महर्षि भृगु और अगस्त्य का वार्तालाप | नहुष का पतन | शतक्रतु का इन्द्रपद पर अभिषेक तथा दीपदान की महिमा | ब्राह्मण के धन का अपहरण विषयक क्षत्रिय और चांडाल का संवाद | ब्रह्मस्व की रक्षा में प्राणोत्सर्ग से चांडाल को मोक्ष की प्राप्ति | धृतराष्ट्ररूपधारी इन्द्र और गौतम ब्राह्मण का संवाद | ब्रह्मा और भगीरथ का संवाद | आयु की वृद्धि और क्षय करने वाले शुभाशुभ कर्मों का वर्णन | गृहस्थाश्रम के कर्तव्यों का विस्तारपूर्वक निरूपण | बड़े और छोटे भाई के पारस्परिक बर्ताव का वर्णन | माता-पिता, आचार्य आदि गुरुजनों के गौरव का वर्णन | मास, पक्ष एवं तिथि सम्बंधी विभिन्न व्रतोपवास के फल का वर्णन | दरिद्रों के लिए यज्ञतुल्य फल देने वाले उपवास-व्रत तथा उसके फल का वर्णन | मानस तथा पार्थिव तीर्थ की महत्ता | द्वादशी तिथि को उपवास तथा विष्णु की पूजा का माहात्म्य | मार्गशीर्ष मास में चन्द्र व्रत करने का प्रतिपादन | बृहस्पति और युधिष्ठिर का संवाद | विभिन्न पापों के फलस्वरूप नरकादि की प्राप्ति एवं तिर्यग्योनियों में जन्म लेने का वर्णन | पाप से छूटने के उपाय तथा अन्नदान की विशेष महिमा | बृहस्पति का युधिष्ठिर को अहिंसा एवं धर्म की महिमा बताना | हिंसा और मांसभक्षण की घोर निन्दा | मद्य और मांस भक्षण के दोष तथा उनके त्याग की महिमा | मांस न खाने से लाभ तथा अहिंसाधर्म की प्रशंसा | द्वैपायन व्यास और एक कीड़े का वृत्तान्त | कीड़े का क्षत्रिय योनि में जन्म तथा व्यासजी का दर्शन | कीड़े का ब्राह्मण योनि में जन्म तथा सनातनब्रह्म की प्राप्ति | दान की प्रशंसा और कर्म का रहस्य | विद्वान एवं सदाचारी ब्राह्मण को अन्नदान की प्रशंसा | तप की प्रशंसा तथा गृहस्थ के उत्तम कर्तव्य का निर्देश | पतिव्रता स्त्रियों के कर्तव्य का वर्णन | नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश | ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त | श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद | पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद | धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद | विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन | लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन | अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन | दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव | महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन | जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की प्रधानता | त्रिवर्ग का निरूपण | कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन | विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन | अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन | उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन | प्राणियों के चार भेदों का निरूपण | पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य | मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन | दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन | यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन | पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन | कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख | शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन | मद्यसेवन के दोषों का वर्णन | पुण्य के विधान का वर्णन | व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति | शौचाचार का वर्णन | आहार शुद्धि का वर्णन | मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ | गुरुपूजा का महत्त्व | उपवास की विधि | तीर्थस्थान की विधि | सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य | अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य | भूमिदान के महत्त्व का वर्णन | कन्या और विद्यादान का माहात्म्य | तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य | नाना प्रकार के दानों का फल | लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण | श्राद्धविधान आदि का वर्णन | दान के पाँच फल | अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति | नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन | शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन | मृत्यु के भेद | कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल | काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति | मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन | मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय | मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता | सांख्यज्ञान का प्रतिपादन | अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन | योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन | पाशुपत योग का वर्णन | शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य | पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन | वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन | श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश | श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् | जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता | ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य | गायत्री मंत्र का फल | ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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