श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
65. रण-निमन्त्रण
दुर्योधन बैठा ही था कि अर्जुन भी आ गये। अर्जुन द्वारिका में अनेक बार आ चुके थे। श्रीकृष्ण के अन्तःपुर में सब उनसे परिचित थे। उनके स्वागत की औपचारिकता अनावश्यक हो चुकी थी श्रीकृष्णचन्द्र के सदन में। दुर्योधन वहाँ न बैठे होते तो महारानी रुक्मिणी स्वागत कर लेतीं अर्जुन का किन्तु अब कोई आवश्यकता हो तो अर्जुन स्वयं भी सेवकों को कह सकते थे अथवा महारानी के समीप जा सकते थे। अतः उनके आने पर ध्यान देना आवश्यक नहीं था। अर्जुन आये और शयन कर रहे अपने सखा के चरणों के समीप शैय्या पर ही बैठ गये। अकस्मात श्रीकृष्णचन्द्र ने नेत्र खोले और अपने पैरों के समीप बैठे विजय को देखते ही उठकर बैठते हुए बोले- 'अर्जुन तुम कब आ गये? कहो, कैसे आये?' दुर्योधन को लगा कि अब अवसर हाथ से निकल ही जाने वाला है। उसने कहा- 'मैं अर्जुन से पहिले आपके समीप पहुँचा हूँ।' 'सुयोधन जी! श्रीकृष्णचन्द्र ने मस्तक वाम की ओर झुकाकर पीछे देखा और शैय्या पर ही दोनों को दो पार्श्व में करते सीधे बैठ गये। अब अर्जुन उनके दाहिने और दुर्योधन बाँये हो गये। श्रीकृष्ण ने दुर्योधन के प्रणाम का उत्तर दिया और पूछा- 'आपने कैसे कष्ट किया?' 'आपको युद्ध में हमारी सहायता करनी चाहिए।' 'मैं भी इसी निमित्त प्रार्थना करने आया हूँ।' श्रीद्वारिकाधीश ने अर्जुन की ओर देखा तो उन्होंने भी हाथ जोड़कर कह दिया। 'आप दोनों ही सम्मान्य संबंधी हैं। आप यहाँ पहले आये हैं और मैंने अर्जुन को पहिले देखा है।' 'मैं आपको चुनता हूँ।' अर्जुन ने तत्काल कहा। 'मुझे सेना स्वीकार है।' दुर्योधन ने भी देर नहीं की। वह डर रहा था कि अर्जुन सेना न ले ले। उसने फिर कहा- 'आप तो शस्त्र लेकर युद्ध नहीं करेंगे?' 'इस युद्ध में शस्त्र न उठाने की मेरी प्रतिज्ञा है।' श्रीकृष्णचन्द्र ने वचन दिया। 'अब आप अनुमति दें।' दुर्योधन तत्काल उठ गया हाथ जोड़कर। उसे विदा देते समय श्रीकृष्ण ने कह दिया- "द्वारिका की सेना के सेनापति के रूप में कृतवर्मा जायेंगे आपके पास में। सात्यकि को पांडव पक्ष में जाने से रोका नहीं जा सकता। वे विजय के शिष्य हैं। दूसरे कोई महारथी किसी पक्ष में जा सकते हैं। मेरे पुत्र-पौत्र युद्ध में सम्मिलित नहीं होंगे।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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