श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
37. विश्वजित-यज्ञ
भूतल पर वैकुण्ठ का अवतरण द्वारिका के रूप में आनर्त के लिए हो ही चुका था। महाराज मरुत पृथ्वी पर उग्रसेन के रूप में अवतरित हुए। उनकी राजधानी मथुरा रहे या द्वारिका-दोनों वैकुण्ठ से अभिन्न। पूर्वजन्म के संस्कार बहुत प्रबल होते हैं। ऋषियों से पुराण-कथा-श्रवण में मरुत के यज्ञ का वर्णन सुनकर महाराज उग्रसेन के मन में भी विश्वजित-यज्ञ[1] करने की उत्कण्ठा जागी; उन्होंने श्रीकृष्ण से अपनी इच्छा प्रकट की और श्रीकृष्ण तो सदा से भक्तवांछाकल्पतरु हैं। उन्होंने समर्थन कर दिया। दिग्विजय करने का प्रश्न यादव सभा में उठा तो प्रद्युम्न ने यह दायित्व स्वीकार किया। उनके नायकत्व में गद, सात्यकि आदि के साथ यादववाहिनी ने द्वारिका से उत्तम विजय-मुहूर्त में प्रस्थान किया। द्वारिका से प्रस्थान करते ही कच्छ शुभन्नत से युद्ध हुआ और विजयश्री ने प्रद्युम्न का वरण किया। कलिंग नरेश गदायुद्ध में गद से पराजित हुए। मरुधन्व[2] के अधिपति दीप्तिमान गिरि-दुर्ग में रहते थे, उन्होंने भी युद्ध किया और हार गये। जो युद्ध करके पराजित हो जाते थे, उनको ससैन्य साथ चलना पड़ता था। कुछ थोड़े-से लोगों को ही प्रद्युम्न ने साथ चलने को विवश नहीं किया। गुर्जरपति ऋष्य ने भेंट अर्पित कर दी। चेदिराज शिशुपाल को प्रद्युम्न से युद्ध में पराजित होने पर भी साथ जाने से छुट्टी मिल गयी। उनकी सेना और सेनानायक रंग-पिंग को भानु ने युद्ध में मार दिया।
करूषाधिप दन्तवक्र ने युद्ध किया; किन्तु युद्ध करने वालों के भाग्य में तो पराजय ही लिखी थी। प्रद्युम्न ने पिता-पितामह के सम्बन्ध का विचार करके दन्तवक्र को साथ चलने पर विवश नहीं किया। उशीनर देश गोपों का। वे श्रीकृष्ण को अपना मानने वाले। उन्होंने बहुत उत्साह से प्रद्युम्न का सत्कार किया। उनकी राजधानी चम्पावती के नरेश हेमाँगद ने इसे अपना सौभाग्य माना। विदर्भाधिप भीष्मक ने दौहित्र का सत्कार किया। दक्षिण में प्रवेश करते ही महर्षि अगस्त्य के दर्शन हुए। उन्होंने उपदेश करने आशीर्वाद दिया। दक्षिण के नरेश राजपुराधीश शाल्व ने द्विविद से सहायता ली; किन्तु जब प्रद्युम्न ने द्विविद को लंका फेंक दिया बाण मारकर तो शाल्व ने भेंट दे दी। मल्लदेश के स्वामी रामकृष्ण युद्ध करके हारे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हरिवंश पुराण में इसे राजसूय यज्ञ कहा गया है; किन्तु महाभारत में स्पष्ट वर्णन है कि जब एक व्यक्ति राजसूय यज्ञ कर लेता है, उसके जीवनकाल में दूसरा नहीं कर सकता। धर्मराज युधिष्ठिर से श्रीकृष्णचन्द्र ने ही राजसूय यज्ञ कराया। अतः यज्ञ का नाम तथा दिग्विजय का वर्णन भी मैं किंचित अपने ढ़ंग से दे रहा हूँ- ऐसे ढंग से जो महाभारतादि से समन्वित हो सके।
- ↑ मारवाड़
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