प्रेम योग -वियोगी हरि
दास्य और तुलसी दासतुम अपनायो तब जानिहौं, जब मन फिरि परिहै। सो, इस दशा का तो अभी यहाँ शताँश भी प्राप्त नहीं हुआ। अभी मेरा मन विषयों की ओर से कहाँ फिरा है। अभी तो मैं कामदास ही हूँ, रामदास नहीं। यह मन जिस सहजभाव से विषयों में आसक्त हो रहा है, उसी भाव से, छल कपट छोड़कर, जब यह तुमसे प्रेम करने लगेगा, तब जानूँगा कि मैं अब अंगीकृत हो गया। जिसे तुमने अपना लिया, वह तुम्हें चातक की चाह से चाहेगा। न वह सम्मानलाभ से प्रसन्न ही होगा और न तिरस्कृत होने पर डाह से जल ही मरेगा। हानि लाभ, सुख दुख आदि समस्त द्वंद्वों को वह एक सा समझेगा। अभी मेरा विषयी मन न तो तुम्हारा गुण गान सुनकर प्रफुल्लित ही होता है और न इन अभागिनी आँखों से प्रेमाश्रु धारा ही बहती है। फिर मैं कैसे मान लूँ कि तुमने अपने अंगीकृत जनों की सूची में तुलसी का भी नाम लिख लिया है। मुझे भूल भुलैया में न छोड़ो, मेरे हृदय सर्वस्व! अशरण शरण! मुझे अंगीकृत करके ही तुम अपने विरद की लाज रख सकोगे। तुम्हें रिझाने लायक और कोई गुण तो मेरे पास है नहीं; हाँ, एक निर्लज्जता निस्संदेह है, आज उसी पर रीझ जाओ। तुम्हारी रीझ अनोखी तो है ही- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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