प्रेम योग -वियोगी हरि
दास्य और तुलसी दासइसके बाद मैं क्या करूँगा, सो सुनो- जानकी जीवन की बलि जैहौं। क्योंकि तुम्हारे साथ का नेह नाता ही इस जीवन का एकमात्र सारभाग है। तुम्हारे बिना जीना, जीना नहीं। वह जीवन ही किस काम का, जिसमें तुम न हो, तुम्हारा प्रेम न हो- तिनतें खर सूकर स्वान भले, जड़ता बस ते न कहैं कछु वै। मैं तो मान चुका हूँ कि तुम मेरे स्वामी हो, पर तुमने भी साथ, स्वीकार करलिया है या नहीं कि, ‘तुलसी हमारा है?’ न किया हो तो अब कर लो। शायद तुम मेरी छोटाई से डरकर मुझे अंगीकृत नहीं कर रहे हो। यह बड़ी आफत है। एक ओर ‘दीनबंधु कहलाने का शौक और दूसरी ओर दीनों के साथ से घिन, दोनों बातें एक साथ कैसे निभ सकती हैं। यदि तुम मेरी लघुता से न डरो तो एक पन्थ दो काज सध जायँ। मैं ‘सनाथ’ हो जाऊँ, और तुम्हें ‘अनाथ पति’ की उपाध मिल जाय। कहो, हो राजी? हौं सनाथ ह्वैहौं सही, तुमहुँ अनाथपति, लघुता से डरना कैसा? बड़ा ख्याल करने की बात है- छोटे से क्यों डरने चला? यह तो कुछ अजीब सी बात है। नहीं, बात ठीक सीधी सी है। बड़े लोग बहुधा छोटों से डरा करते हैं। बात करना तो बहुत दूर है वे उनके सामने भी नहीं जा सकते। उन्हें यही भय लगा रहता है कि कहीं हम छोटे लोगों के पास खड़े हो गये तो दुनिया क्या कहेगी- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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