प्रेम योग -वियोगी हरि
दास्यस्वामी के स्वार्थ से भिन्न उसका अपना कोई स्वार्थ है ही क्या? जब नृसिंह भगवान् ने भक्तवर प्रह्लाद से वर माँगने को कहा, तब आप बोले- नान्यथा तेऽखिलगुरो घटेत करुणात्मनः। हे जगद्गुरो! तुम करुणारूप हो, तुम्हारा इस प्रकार अपने दासों को विषयों की ओर प्रवृत्त करना असंभव है। जो तुम्हारा दुर्लभ दर्शन पाकर तुमसे विषय जन्य सुख माँगता है, वह सेवक नहीं, बनिया है। मैं जैसे तुम्हारा निष्काम सेवक हूँ, वैसे तुम भी मेरे अभिसन्धि शून्य स्वामी हो। अतः राजा और उसके सेवक की भाँति हमलोगों में आभिसन्धि की कोई आवश्यकता नहीं है। हे वरदानियों में श्रेष्ठ! यदि मुझे तुम मनोवांछित वर देना ही चाहते हो, तो यही एक वर दो कि मेरे हृदय में कभी विषय वासनाओं का अंकुर न उगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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