प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम और विरहव्यापकता की प्रत्यक्षानुभूति विरह वेदना में ही होती है। विरही के प्रति सभी सहानुभूति प्रकट करते हैं या उसकी दृष्टि हीकुछ ऐसी हो जाती है कि सारा संसार उसे अपने ही समान विरहाकुल दिखायी देता है। विरह दग्ध की दृष्टि में धुएँ से बादल कोयले की तरह काले हो जाते हैं, राहु केतु भी झुलस जाते है, सूर्य तप्त हो उठता है, चंद्रमा की कलाएँ जलकर खण्डित हो जाती हैं और पलास के फूल तो अंगारों की भाँति उस आग में दहकने लगते हैं। तारे जल जलकर टूट पड़ते हैं। धरती भी धायँ धायँ जलने लगती है। हमारे प्रेमी जायसी ने इस विश्वव्यापी विरह दाह का कैसा सकरुण वर्णन किया है- अस परजरा बिरह कर गठा। मेघ स्याम भये धूम जो उठा।। ये सब उस विरही के दुख में दुखी न हुए होते, उसके साथ इन सबों ने समवेदना प्रकट न की होती तो बेचारा कब तक अकेला ही उस आग में जलता रहता। वह जला और उसने सारी प्रकृति ही दहकती हुई देखी। वह रोया और उसने सारे विश्व को अपने साथ फूट फूटकर रोता हुआ पाया। हाँ, सच तो है, उस विरहदग्ध रक्ताश्रुओं से आज सभी भीग भीगकर लाल हो रहे हैं, सभी उसके साथ हृदय का रुधिर आँखों से टपका रहे हैं- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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