प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम और विरहवह प्यारे राम को विरहिणी है। उस प्यारे की दीदार की ही उसे चाह है। वह एक प्यासी पपीही है। एक दरद रंगीली दीवानी है। व्यथा कैसे कहे- गला भर आया है, आँखों से झरने झरते हैं। दिन रात बेचारी तड़पती ही रहती है। अरे, वह तो पगली है, पगली। ऐसी पगली कि उसके पागलने का भेद ही आज तक किसी को नहीं मिला। उस दीवानी के दिल में एक आग बल रही है। जिगर जल रहा है। केलेजे के अंदर छेद ही छेद हो गये हैं। जाप करती है तो प्यारे का और ध्यान धरती है तो प्यारे का। उस विरहिणी का जीव आज उसका प्रियतम ही रहा है और उसका प्रियतम हो गया है उसका जीव! जीव पर प्यारे की छाया पड़ रही है और प्यारे पर जीव की झाईँ झलक रही है। ‘जीव और पीव’ में कैसा गजब का तादात्म्य हुआ है! प्यारे का उसे दिखायी देना क्या था, उससे बिछुड़कर खुद उसे अपने आपसे भी जुदा कर देना था। मीर साहब ने क्या अच्छा कहा है- दिखाई दिये यूँ कि बेखुद किया, खूब दिखायी दिये! अपनी जुदाई के साथ साथ बेखुदी भी हमें देते गये। अच्छा हुआ, एक बला टली। अपना एक मन था, वह भी हाथ से चला गया। मन से भी छुट्टी पा ली। अब मनवाले उस बेमन वाले की व्यथा जानने आये हैं। पर क्या मोहित का मर्म मोहक समझ सकेगा? कभी नहीं- कान्ह परे बहुतायत में, इकलेन की वेदन जानौ कहा तुम? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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