प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम और विरहयुगों से कसक सो रही है। इसी से जीव भी बेहोश पड़ा है और सुरत भी सो रही है। कौन इन्हें जगावे। द्वार पर खड़े प्यारे स्वामी से कौन इस जीव को मिलावे। बस, विरह ही कसक को जगा सकता है और कसक जीव को जगा सकती है और सुरत को जीव जगा लेगा। संतवर दादूदयाल कहते हैं- बिरह जगावै दरद को, दरद जगावै जीव। ऐसी महिमा है महात्मा विरह देव की। प्रियविरह निश्चयपूर्वक सुरत और जीव का सद्गुरु है। जिसने इस महामहिम से गुरुमंत्र ले लिया, उसका उसी क्षण प्रेम देव से तादात्म्य हो गया। जिसने यह दुस्साध्य साधन साध लिया, उसे आत्म साक्षात्कार हो गया। पर विरहात्मक प्रेम का साधक यहाँ मिलेगा कहाँ? इस लेन देन की दुनियाँ में उसका दर्शन दुर्लभ है। शायद ही लाख करोड़ में कहीं एकाध सच्चा विरही देखने में आये। उसकी पहचान भी बड़ी कठिन है। उसका भेद पा लेना आसान नहीं। संत चरणदास ने विरह साधना में मतवाली विरहिणी कैसी सच्ची तसवीर खींची है- गदगद बानो कंठ में, आँसू टपकैं नैन। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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