प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम मैत्रीप्रेमी ताकों जानिए, देइ मित्र पर प्रान। जिन लोगों ने राहेदोस्ती में, मित्रता के मार्ग में, अपने प्राण दे दिये हैं, उनके पवित्र पाद चिह्नों पर संसार अपना मस्तक क्यों न रखे- जो राहे दोस्ती में, मीर, मर गये हैं, स्वार्थ त्याग ही मैत्री का एकमात्र परिपोषक है। जहाँ स्वार्थ है, वहाँ मैत्री कहाँ? सचमुच स्वार्थी की दोस्ती किसी काम की नहीं। भौंरे और फूल में भी तो मित्रता होती हैं। बेचारा पुष्प पराग पर कैसा पागल हो जाता है! मस्त होकर उस अधखिली कली पर कैसा मँडराता है! पर मधुविहीन सुमन के भी समीप जाते किसी ने कभी उस उन्मत्त मधुप को देखा है? कितने रसपूर्ण पुष्पों को चंचल चंचरीक ने अपना मित्र न बनाया होगा। पर कब तक के लिए? जब तक वे उसे अपने मधु रस का प्रणय उपहार देते रहे। फिर भी आप पुष्प के प्रति लोभी भ्रमर की प्रीति को मित्रता का नाम देते हैं! सुकवि नूरमुहम्मद ने क्या अच्छा कहा है- खोटी प्रीति भँवर की आहै। भँवर आपनो कारज चाहै।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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