प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेमोन्मादऐसे होते हैं प्रेमोन्मादी। वह पगला अपनी खुदमस्ती में उछल कूद करने वाले शैतान मन को कुचलकर चूर चूर कर देता है। मन मातंग को वह प्रेम जंजीर से जकड़कर बाँध देता है। उसकी मस्ती के आगे मनरूपी मस्त हाथी मुर्दा सा पड़ा रहता है- मन मतंग महमंत था, फिर नागहिर गंभीर। वह पागल बकती सी बातें करता है, बिल्कुल बेमतलब, बेमानी। कबी खिलखिलाकर हँस पड़ता है, तो कभी आँसुओं का तार बाँध देता है। कौन जाने, किसलिए रोता और किसलिए हँसता है? पर इतना तो हम अवश्यक जानते हैं, कि वह रहता मौज में है। उसके रोने में भी रहस्य है और हँसने में भी रहस्य है। प्रेमोन्मत्त भक्तवर सुतीक्ष्ण की सी कोटि की प्रेम विह्वलता को गोसाई तुलसीदास जी ने जिस कौशल से चित्रित किया है, वह देखते ही बनता है। अहा! निर्भर प्रेममगन मुनि ज्ञानी। कहि न जाइ सो दसा भवानी।। उस पगले प्रेमी का जात पाँत से कोई नाता नहीं रह जाता। एक झटके से ही सब तोड़ ताड़कर अलग जा खड़ा होता है। लोग उसे पागल कहते हैं, और सका साथ छोड़ देते हैं। वह मस्तराम अपनी देहत को नहीं सँभाल सकता। रखना चाहता है पैर कहीं और पड़ता है कहीं! पर कुशल है, उसका प्यारा सदा उसके साथ रहता है। वही उसे गिरने पड़ने से संभाल लेता है। कभी चुप हो जाता है, कभी प्रीति के गीत गाने लगता है और कभी फूट फूटकर रोने लगता है! न जाने, किसका ध्यान करता है। कुछ पता नहीं चलता। बेसुध ही देखने में आता है। पर कभी कभी वह बेहोश पगला होशयार की तरह काम करने लगता है। उसके हृदय सिन्धु में आनन्द की हिलोरें उठा करती हैं। वह दीवाना न तो खुद ही किसी का साथ पसंद करता है, और न उसे ही कोई अपना संगी साथी बनाना चाहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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