श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
52. राजसूय-यज्ञ की यात्रा
वह पुरुष अपनी बात पूर्ण करके चुप ही हुआ था कि सहसा गगन से एक प्रकाश उतरता दीख पड़ा। भगवन्नाम-कीर्तन की ध्वनि आयी और स्पष्ट हो गया कि देवर्षि पधारे हैं। सब लोग उठ खड़े हुए। सबका प्रणिपात स्वीकार करके जब देवर्षि ने आसन ग्रहण कर लिया तो उनकी अर्चना करते हुए श्रीकृष्णचन्द्र ने पूछ लिया- 'आप कहाँ से आ रहे हैं?' 'इन्द्रप्रस्थ से।' 'हमारे भाई पाण्डुपुत्र सकुशल हैं?' 'सब सानन्द हैं।' 'देवर्षि का आदेश सदा सम्मान्य है।' 'पहिला कर्तव्य है शरणागतों की रक्षा।' भगवान संकर्षण गम्भीर स्वर में बोले- 'राजसूय कुछ काल रुक सकता है, किन्तु जो कारागार में बन्दी हैं उनका एक-एक दिन उनके लिए भारी हो रहा है। उनको अविलम्ब परित्राण दिया जाना चाहिए।' अब यादव सभा में दो पक्ष हो गये और इस बात पर विवाद होने लगा कि पहिले क्या करना है। दोनों कार्य ही है इसमें दो मत नहीं थे किन्तु प्राथमिकता किसे दी जाय? सात्यकि अर्जुन के शस्त्र-शिष्य, द्वारिका की सेना के प्रधान योद्धा। उनका और उनके समर्थक लोगों का मत पांडवों को प्रथम सहायता देना था। भगवान बलराम, कृतवर्मा आदि पहिले मगध पर आक्रमण करके राजाओं को कारागार से मुक्त करने के पक्ष में थे। पांडवों को राजसूय के लिए दिग्विजय करनी पड़ेगी। इसमें कितना काल लगेगा, कुछ पता नहीं और दिग्विजय के लिए उन्हें सम्पूर्ण शक्ति से सहायता देनी पड़ेगी। मगधराज जरासन्ध सत्रह बार भले पराजित किया गया हो, तब वह मथुरा आया था। मगध पर आक्रमण पूरी शक्ति के बिना बुद्धिमानी नहीं। अतः दोनों कार्य साथ करने की बात ही नहीं सोची जा सकती। थोड़ी देर कोलाहल, तर्क-वितर्क होता रहा। लेकिन शीघ्र सबने लक्षित कर लिया कि श्रीकृष्णचन्द्र शान्त बैठे हैं। श्रीबलराम जी ने भाई से कहा- 'तुम चुप हो, तुम क्या चाहते हो?' श्रीकृष्ण क्या कहते हो, यह सुनने को सब शान्त हो गये। उन द्वारिकाधीश ने उद्धव से कहा- 'वृह्दवल! तुम हमारी राजसभा के प्रधानमंत्री हो। देवगुरु वृहस्पति के शिष्य हो। हम सब तो तुम्हारी बुद्धि के नेत्रों से देखने वाले हैं। तुम्हारी जो सम्मति होगी उसी पर श्रद्धा करके हम वैसा ही करेंगे।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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