श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
52. राजसूय-यज्ञ की यात्रा
'देव! आप शरणागत वत्सल हैं। आर्तों के परित्राता हैं। आपके श्रीचरणों तक पहुँची पुकार कभी निराश नहीं लौटती। अतः नरेशों को परित्राण तो प्राप्त होगा ही।' श्रीबलराम, कृतवर्मा, राजाओं का दूत, सबने प्रशंसा की दृष्टि से उद्धव की ओर देखा। 'आप ही यज्ञपुरुष हैं। पांडव आपके चरणाश्रित हैं और आपकी ही अर्चा करना चाहते हैं। भक्त-वांछा-कल्पतरु आपके पाद पद्मों तक आयीं कामना अधूरी तो नहीं रह सकती; देवर्षि सात्यकि प्रभृति[1] प्रसन्न हुए और चौंके कि उद्धव कहना क्या चाहते हैं। 'राजाओं को बन्दीगृह से छुड़वाने के लिए मगधराज को पराजित करना होगा और राजसूय करने के लिए दिग्विजय आवश्यक है जो बिना जरासन्ध को पराजित किये पूर्ण नहीं होगी। अतः मुझे तो दो कार्य ही सम्मुख नहीं दीखते। जो दो कार्य हैं, उन दोनों की सम्पन्नता जरासन्ध के पराजय की माँग करती हैं।' उद्धव की सबने मन में प्रशंसा की। 'लेकिन जरासन्ध के गिरिव्रज पर आक्रमण के लिए सौ अक्षौहिणी सेना भी अपर्याप्त है।' अब उद्धव ने तात्पर्य स्पष्ट किया- 'मेरी सम्मति है कि आपका सान्निध्य प्राप्त हो तो द्वन्द्व युद्ध में भीमसेन उसे मार देने में समर्थ हैं और यदि आप भीम को लेकर ब्राह्मण वेश में जाकर द्वन्द्व युद्ध माँगे तो जरासन्ध अस्वीकार नहीं करेगा। सेना लेकर मगध पर आक्रमण मुझे उचित नहीं लगता। उसके सब समर्थक आ जायेंगे और हम बाहर से भी घिर जायेंगे वहाँ। गिरिव्रज पर्वतों के दृढ़ दुर्ग के कारण दुर्गम्य है।' 'सर्वश्रेष्ठ सम्मति! उद्धव की सम्मति बहुत उपयुक्त है।' महाराज उग्रसेन बोल उठे। दूसरे यदुवृद्धों ने भी समर्थन कर दिया। 'हम ऐसा ही करेंगे।' श्रीकृष्णचन्द्र ने स्वीकृति दे दी। यद्यपि यदुवंश के तरुणों को, कृतवर्मा को भी यह मत रुचा नहीं। किन्तु जब महाराज ने समर्थन कर दिया, श्रीद्वारिकाधीश ने स्वीकार कर लिया तो अब कुछ भी कहने को रह क्या गया। 'आप स्नान-आहार आदि करके विश्राम कर लें।' देवर्षि अनुमति लेकर विदा हो गये। द्वारिका में इन्द्रप्रस्थ प्रस्थान की प्रस्तुति प्रारम्भ हो गयी। यह निर्णय वहीं हो गया कि श्रीसंकर्षण द्वारिका में महाराज उग्रसेन के समीप रहेंगे तथा महासेनापति अनाधृष्ट और कृतवर्मा के साथ नगर एवं प्रजा की रक्षा का दायित्व सम्हालेंगे। श्रीकृष्णचन्द्र अपनी सभी पत्नियों एवं पुत्रों तथा उद्धव, सात्यकि को लेकर इन्द्रप्रस्थ जायेंगे और धर्मराज के राजसूय यज्ञ का सम्पादन करेंगे। दूसरे दिन जब वह मगध से आया दूत विदा हुआ, श्रीद्वारिकाधीश भी प्रस्थान ही करने वाले थे।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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