श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
गोपी-प्रेम का स्वरूपयह कान्ता भाव दो प्रकार का है- स्वकीया और परकीया। लौकिक कान्ता भाव में परकीया भाव त्याज्य है, घृणित है; क्योंकि उसमें अगं-सगंरूप काम वासना रहती है और प्रेमास्पद ‘जार-मनुष्य’ होता है। परंतु दिव्य कान्ता भाव में- परमेश्वर के प्रति होने वाले कान्ता भाव में परकीया भाव ग्राह्य है, वह स्वकीया से श्रेष्ठ है, क्योंकि इससे कहीं अगं-सगं या इन्द्रिय तृप्ति की आकाक्षां नहीं है। प्रेमास्पद पुरुष जार नहीं हैं, स्वयं ‘विश्वात्मा भगवान’ हैं- पति-पुत्रों के और अपने सब के आत्मा परमात्मा हैं। इसीलिये गोपी-प्रेम में परकीया भाव माना जाता है। यद्यपि स्वकीया पतिव्रता स्त्री अपना नाम, गोत्र, जीवन, धन, धर्म-सभी पति के अर्पण कर प्रत्येक चेष्टा पति के लिये ही करती है, तथापि परकीया भाव में तीन बातें विशेष हाती हैं- प्रियतम का निन्तर चिन्तन, उससे मिलने की अतृप्त उत्कण्ठा और प्रियतम में दोष दृष्टि का सर्वथा अभाव। स्वकीया में सदा एक ही घर में एक साथ निवास होने के कारण ये तीनों ही बातें नहीं होतीं। गोपियाँ भगवान को नित्य देखती थीं, परंतु परकीया भाव की प्रधानता से क्षण भर का वियोग भी उनके लिये असह्य हो जाता था, आँखों पर पलक बनाने वाले विधाता को वे कोसती थीं; क्योंकि पलक न होते तो आँखें सदा खुली ही रहतीं, गोपियाँ कहती हैं-
‘जब आप दिन के समय वन में विचरते हैं, तब आपको न देख सकने के कारण हमारे लिये एक-एक पल युग के समान बीतता है। फिर संध्या के समय जब हम वन से लौटते हुए आपके घुँघराली अलकावलियों से युक्त श्रीमुख को देखती हैं, तब हमें आँखों में पलक बनाने वाले ब्रह्मा मूर्ख प्रतीत होने लगते हैं। अर्थात एक पलक भी आपको देखे बिना हमें कल नहीं पड़ती।’ |
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क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
- ↑ श्रीमभ्दा. 10/31/1५
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