|
विखरे सुमन
110- जगत में जितना प्रेम है, वह न चिरस्थायी है, न एक समान है और न एक में है। पर भगवान का प्रेम चिरस्थायी, एक समान तथा एक में है। श्रीकृष्ण में जिसका एक बार प्रेम हो गया, वह एक में हो गया, स्थायी हो गया तथा एक-सा हो गया। फिर एक श्रीकृष्ण को छोड़ कर अथवा किसी प्रयोजन से प्रेम नहीं करता।
111- भगवान को प्राप्त करने का सबसे सरल साधन है-तीव्र व्याकुलता। उनके लिये हमारे प्राण जितना ही अधिक करुण-क्रन्दन करेंगे, उतना ही वे हमारे समीप आयेंगे।
112- हमारा काम है, एकमात्र कर्तव्य है-व्याकुल हृदय से नित्य उनका स्मरण करना, उन्हें पुकारना।
113- सचमुच जिनका मन श्रीकृष्ण को प्राप्त करने के लिये व्यग्र हो जाता है, जो श्रीकृष्ण को पाने के लिये पागल हो जाते हैं और उनकी ओर दौड़़ पड़ते हैं, जिनमें श्रीकृष्ण प्राप्ति की लालसा आत्यचिन्तक रूप से जाग्रत हो जाती है, वे पथ-अपथ क्या देखते हैं ? वे कब हिसाब लगाते हैं कि इस रास्ते में कितना क्लेश है, उनको कौन रोक सकता है? उनकी उद्दामगति में कौन बाधक हो सकता है ? उनको कोई दुःख रोक नहीं सकता। दुःख उनके ध्यान में आता ही नहीं; स्त्री-पुत्र, धन-मान, कीर्ति आदि की लालसा उनको मोहित नहीं कर सकती। हजारों, लाखों दुःखों को भी वे दुःख नहीं मानते।
114- प्रेम होना चाहिये; जिस वस्तु में प्रेम होता है, उसके सेवन में नींद नहीं आती, जी नहीं ऊबता।
भगवान की सेवा का समय उपस्थित होने पर प्रेमी के सामने जितने भी प्रतिबन्ध हों, वे अपने-आप हट जाते हैं।
115- अन्यान्य साधनों द्वारा भगवान अन्यान्य रूपों में प्राप्त होते हैं, परंतु प्रेम के द्वारा तो वे ‘प्रियतम’ रूप में मिलते हैं। यह प्रेम ही चरम या पचंम पुरुषार्थ है,जिसमें मोक्ष का भी संन्यास हो जाता है। यही जीवन परम फल है।
116- माधुर्य-भाव के उपासक को लौकिक विषय-सुख और सुविधाओं से परम विरक्त होकर ही प्रिया-प्रियतम के चरणों में परम अनुरक्त होना चाहिये। उनके विरह में रोना, उन्हीं को आर्तभाव से पुकारना उनकी प्राप्ति का सर्वोत्तम उपाय है। अपना जीवन, अपना सर्वस्व उन पर निछावर करके उन्हीं का होकर रहना और उन्हीं के लिये जीवन धारण करना चाहिये।
|
|