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विखरे सुमन
-प्रेम का मार्ग धधकती हुई आग की ज्वाला है, इसे देखकर ही लोग वापस भाग जाते हैं; परंतु जो उसमें कूद पड़ते हैं, वे महान आनन्द का उपभोग करते हैं। देखने वाले जलते हैं।
90- वह प्रेम प्रेम नहीं है, जिसका आधा किसी इन्द्रिय का विषय है।
91- नियमों के सारे बन्धनों का अनायास आप-से-आप टूट ही जाना ही प्रेम का एक मात्र नियम है।
92- जब तक नियम जान-बूझकर तोड़े जाते हैं। तब तक प्रेम नहीं है, कोई-न-कोई आसक्ति हमसे वैसा करवा रही है। प्रेम में नियम तोड़ने नहीं पड़ते, परंतु उनका बन्धन आप-से-आप टूट जाता है।
93- प्रेम में एक विलक्षण मत्तता होती है, जो नियमों की ओर देखना नहीं जानती।
94- प्रेम में भी सुख की खोज होती है; परंतु उसमें विशेषता यही है कि वहाँ प्रेमास्पद का सुख ही अपना सुख माना जाता है।
95- प्रेमस्पाद के सुखी होने में यदि प्रेमी को भयानक नरकयन्त्रणा भोगनी पड़े तो उसमें भी उसे सुख ही मिलता है; क्योकि वह अपने अस्तित्व को प्रेमास्पाद के अस्तित्व में विलीन कर चुका है।
96- अपना सुख चाहने वाली तो वेश्या हुआ करती है, जिसके प्रेम का कोई मूल्य नहीं। पतिव्रता तो अपना सर्वस्व देकर भी पति के सुख में ही सुखी रहती है; क्योंकि वह वास्तव में एक पति के सिवा अन्य किसी पदार्थ को ‘अपना’ नहीं जानती।
97- प्रेमास्पद यदि प्रेमी के सामने ही उसकी सर्वथा अवज्ञा करके किसी आगन्तुक से प्रेमी को क्षोभ नहीं होता, उसे तो सुख ही होता है; क्योंकि उस समय उसके प्रेमास्पाद को सुख हो रहा है।
98- जो वियोग-वेदना, अपमान-अत्याचार और भय-भर्त्सना आदि सबको सहन करने पर भी सुखी रह सकता है, वही प्रेम के पाठ का अधिकारी है।
99- प्रेम वाणी का विषय नहीं; जहाँ लोक-परलोक के अर्पण की तैयारी होती है, वहीं प्रेम का दर्शन हो सकता है।
100- प्रेम के दर्शन बड़े दुर्लभ है; सारा जीवन केवल प्रतीक्षा में बिताना पड़े, तब भी क्षोभ करने का अधिकार नहीं।
101- प्रेम खिलौना नहीं है; परंतु धधकती हुई आग है। जो सब कुछ भुलाकर उसमें कूद पड़ता है, वही उसे पाकर कृतार्थ होता है।
102- प्रेम का आकार असीम है; जहाँ संकोच या सीमा है, वहाँ प्रेम को स्थान नहीं।
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