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विखरे सुमन
15- प्रेम उत्पन्न हो जाने पर मन, बुद्धि अर्पण करने नहीं पड़ते; ये स्वत; अर्पण हो जाते हैं।
16- प्रेम बड़ी दुर्लभ वस्तु है, यह सहज में नहीं मिलता; और जिसे मिल जाता है, उसके समान भाग्यशाली कोई नहीं।
17- प्रेम में वस्तुतः भगवान का कभी वियोग नहीं हाेता। भगवान श्रीकृष्ण वृन्दावन को छोडकर एक पग भी बाहर नहीं जाते। श्री गोपीजनों को छोड़कर किसी समय भी कहीं नहीं जाते। श्री गोपीजनों ने उद्धव को दिखला दिया था कि श्रीकृष्ण गोपीजनों के पास ही निरन्तर रहते हैं; क्योंकि वे स्वयं प्रेमी बनकर श्री गोपीजनों को प्रेमास्पद समझते हैं।
18- प्रेमास्पद प्रेमी का ही बन जाता है। श्रीकृष्ण भी गोपिकाओं के ही बन गये। उन्होंने कहा है-गोपिकाओं! देवताओं की- जैसी आयु धारण् करके भी मैं तुम्हारा यह प्रेम-ऋण चुका नहीं सकता।
19- प्रेम का ऋण चुकाने के लिये भगवान के पास कुछ भी नहीं रहता, पर प्रेमी उन्हे ऋणी नहीं बनाता! उन्हे ऋणी मानकर उनसे कुछ चाहे, ऐसा प्रेमी कभी नहीं करता।
20- जहाँ कुछ भी अपनी चाह है, वहाँ प्रेम नहीं है।
21- प्रेमी का सुख इसी में है कि उसका प्रेमास्पद सुखी रहे- ‘तत्सुखसुखित्वम्’।
22- हमारे दुःख से यदि प्रेमास्पद सुखी होता हो तो वह दुःख हमारे लिये सुख है- यह प्रेमी का हार्दिक भाव होता है। ऐसे दुःख को, ऐसी विपत्ति को वह परम सुख-परम सम्पत्ति मानता है। मानता ही नहीं, सर्वथा ऐसा ही अनुभव करता है।
23- प्रेम का स्वभाव विचित्र है, इसमें त्याग-ही-त्याग --देना-ही-देना है।
24- प्रेमी प्रेमास्पद को अखण्ड सुखी देखना चाहता है, उनको सुखी देखकर ही वह सुखी होता है। प्रेमी के सुख का आधार है- प्रेमास्पद का सुख। इसी भाव का जितना विकास इस जगत में जहाँ कहीं भी होता है, वहाँ उतना ही पवित्र भाव होता है।
25- भगवान जिसे अपना प्रेम देते हैं, उसका सब कुछ हर लेते हैं। किसी भी वस्तु में उसकी ममता नहीं रह जाती, समस्त ममता भगवान में जुड़ जाती है और इसे लेकर वह एक ही बात चाहता है- कैसे मेरे प्रेमास्पद सुखी हों।
26-भगवान जब अपने-आप को किसी के हाथ बेच देना स्वीकार कर लेते हैं, तभी किसी को अपना प्रेम देते हैं।
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