श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
भगवदवतार का रहस्य‘प्राण कैद हो गये। आठों पहर आपके ध्यान में किवाड़ लगे रहते हैं। आपका ध्यान कभी छूटता नहीं, आपकी तमाल-श्याम-माधुरी मुर्ति कभी मन के नेत्रों से परे होती ही नहीं। यदि कभी किवाड़ खोले भी जायँ तो बाहर रात-दिन पहरा लगता है। पहरेदार कौन हैं? राम-नाम। क्षण भर के लिये राम-नाम लेने से जिह्वा विराम नहीं लेती। प्राण कैसे निकलें?’ ऐसी स्थिति में क्या सीता को इस उपदेश की अपेक्षा थी कि ‘तुम अशोक वाटिका में अकेली रहती हो, समय बहुत मिलता है, इसके सिवा राक्षसियों का डर रहता है; इसलिये कुछ देर राम को याद कर लिया करो।’ यह उपदेश या तो अभक्तों के लिये है या प्रेमहीन रँगरूटों के लिये। प्रेमीजनों को तो अपने प्रेमास्पद का नाम इतना प्यारा होता है कि स्वयं तो वे उसे कभी भूल ही नहीं सकते, दूसरे को कभी भूले-भटके उच्चारण करते सुन लेते हैं तो उसकी चरण-धूलि लेने दौड़ पड़ते हैं। प्रियतम का नाम लेने वाला, प्रियतम का गुण गाने वाला, प्रियतम का प्रेमी हृदय उनके आदर का पात्र-प्रेम का पात्र न हो तो कौन होगा? प्रियतम का चिह्न ही हृदय में हर्ष पैदा कर देता है। गोपियाँ श्याम मेघों को देखकर श्रीकृष्ण का स्मरण करती हुई मेघो का दीर्घ जीवन मनाती हैं-
भरतजी श्री राम के पद चिह्न और कुशशप्या के तृणों को देखकर वहाँ की धूलि को और तृणों को सिर-माथे पर चढ़ाने लगते हैं,[1] श्रीराम-सीता के वस्त्र हृदय से लगाते हैं,[2] महामुनि वसिष्ठ[3] और भरतजी[4] गुहको अपने राम का प्रिय सखा समझकर उसपर राम के सदृश स्त्रेह और प्रेम दिखलाते हैं। सीता-संदेश सुनाने वाले हनुमान् के प्रति श्रीराम और श्रीराम का आगमन-संवाद सुनाने वाले हनुमान् के प्रति श्री भरत ऐसी कृतज्ञता प्रकट करते हैं कि जिसका वर्णन नही हो सकता। दोनों ही अपने को हनुमान् का चिचिरऋणी घोषित करते हैं- |
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क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
- ↑ कुस साँथरी निहारि सुहाई। कीन्हि प्रनामु प्रदच्छिन जाई।
चरन रेख रज आँखिन लाई। बनइ न कहत प्रीति अधिकाई।। - ↑ पट उर लाइ सोच अति कीन्हा।
- ↑ राम सखा रिषि बरबस भेंटा। जनु महि लुठत सनेह समेटा।।
एहि सम निपट नीच कोउ नाहीं। बड़ बसिष्ठ सम को जग माहीं।। - ↑ भटेत भरतु ताहि अति प्रीती। लोग सिहाहिं प्रेम कै रीती।।
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