श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
दिव्य प्रेमभगवत्संगी का अर्थ है-भगवान में अनुरक्त, आसक्त,भगवान का संगी ‘भगवान का प्रेमी’ गोपीभावापत्र। ऐसे भगवत्सग़ि का संग यदि लवमात्र के समय के लिये मिलता हो तो उसकी तुलना यहाँ के भोगों की बात ही क्या है, स्वर्ग से भी नहीं होती, वरं अपुनर्भव-मोक्ष से भी नहीं होती। ‘अपुनर्भव’ का अर्थ है- जिससे वापस नहीं लौटा जाता, वैसी ‘सायुज्या मुक्ति’। इस मुक्ति की भी लवमात्र के भगवत्संगी के संगी से तुलना नहीं होती। यह भगवत्प्रेम की महिमा है। इसी से इस प्रेम की-इस दिव्य भगवत्प्रेम की-व्रजरस की वांछा शिव-नारदादि, महान मुनि-तपस्वी आदि करते हैं। स्वयं ब्रह्मविद्या भी इस प्रेम के लिये लालायित हैं- जबालि नामक ब्रह्मज्ञानी मुनि ने एक बार विशाल वन में विचरते समय एक विशाल बावड़ी के तट पर वटवृक्ष की छाया में एक अनन्य-सुन्दरी परम तेजोमयी तरूणी देवी को कठोर तप करते देखा। चन्द्रमा की शुभ्र ज्योत्स्ना के सदृश उसकी आभा चारों ओर छिटक रही थी। उसे देखकर मुनि को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने यह जानना चाहा कि ये देवी कौन हैं तथा क्यों तपस्या कर रही हैं। पूछने पर पता लगा कि जिनकी शरण प्राप्त करने पर अज्ञानान्धकार सदा के लिये नष्ट हो जाता है, दुर्लभ तत्त्व ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है तथा जीव माया के बन्धन से मुक्त होकर स्परूप ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है, वे स्वयं ब्रह्मविद्या ही ये हैं। नम्रता के साथ प्रश्र करने पर तापसी देवी ने कहा-
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- ↑ पद्यपुराण
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