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श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
श्रीराधा की प्रेम-साधना और उनका अनिर्वचनीय स्वरूप
‘जो श्रीकृष्ण हैं, वही श्रीराधा हैं और जो श्रीराधा हैं, वही श्रीकृष्ण हैं; श्रीराधा-माधव के रूप में एक ही ज्योति दो प्रकार से प्रकट है।’ ब्रह्मवैवर्तपुराण में भगवान के वचन हैं—
‘मुझमें (श्रीकृष्ण में) और तुम में (श्रीराधा में) जो अधम मनुष्य भेद मानता है, वह जब तक चन्द्रमा और सूर्य रहेंगे, तब तक ‘कालसूत्र’ नामक नरक में रहेगा।’ भगवान श्रीकृष्ण ने राधा से कहा है— ‘प्राणाधिके राधिके! वास्तव में हम-तुम दो नहीं हैं; जो तुम हो, वही मैं हूँ और जो मैं हूँ, वही तुम हो। जैसे दूध में धवलता है, अग्नि में दाहिका शक्ति है, पृथ्वी में गन्ध है, उसी प्रकार मेरा-तुम्हारा अभिन्न सम्बन्ध है। सृष्टि की रचना में भी तुम्हीं उपादान बनकर मेरे साथ रहती हो। मिट्टी न हो तो कुम्हार घड़ा कैसे बनाये; सोना न हो तो सुनार गहना कैसे बनाये। वैसे ही यदि तुम न रहो तो मैं सृष्टिरचना नहीं कर सकता। तुम सृष्टि की आधार रूपा हो और मैं उसका अच्युत बीज हूँ।[1]’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ब्रह्मवैवर्त पुराण, कृष्णखण्ड
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