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श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
राधा-कृष्ण की अभिन्नता तथा राधा प्रेम की विशुद्धता
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‘गोपियो! तुमने मेरे लिये घर की उन बेड़ियों को तोड़ डाला है, जिन्हें बड़े-बड़े योगी-यति भी नहीं तोड़ पाते। मुझसे तुम्हारा यह मिलन, यह आत्मिक संयोग सर्वथा निर्मल और सर्वथा निर्दोष है। यदि मैं अमर शरीर से, अमर जीवन से अनन्त काल तक तुम्हारे प्रेम, सेवा और त्याग का बदला चुकाना चाहूँ तो भी नहीं चुका सकता। मैं सदा तुम्हारा ऋणी हूँ। तुम अपने सौम्य स्वभाव से ही, प्रेम से ही मुझे उऋण कर सकती हो। परंतु मैं तो तुम्हारा ऋणी ही हूँ।’ प्रेममार्गी भक्त को चाहिये कि वह अपनी समझ से तन, मन, वचन से होने वाली प्रत्येक चेष्टा को श्रीकृष्णसुख के लिये ही करे। जब-जब मन के प्रतिकूल स्थिति प्राप्त हो, तब-तब उसे श्रीकृष्ण की सुखेच्छाजनित स्थिति समझकर अनुभव करे। यों करते-करते जब प्रेमी भक्त का केवल श्रीकृष्णसुख-काम अनन्यता पर पहुँच जाता है, तब श्रीकृष्ण के मन की बात भी उसे मालूम होने लगती है। गोपियों के ‘श्रीकृष्णानुकूल जीवन’ में यह प्रत्यक्ष है। उनके जीवन को श्रीकृष्ण अपना सब कुछ बना लेते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भा. 10। 32। 22
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