श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
इन्हीं की व्यक्त लीलाक्षेत्र में नित्य व्यक्त लीला चलती है और ये ही अव्यक्त लीलाक्षेत्र में स्वरूपगत लीलामय रती हैं। इनकी कायव्यूहरूपा भावसमन्विता श्रीगोपांगनाएँ इन्हीं मूल महाभावरूपा ह्लादिनी शक्ति श्रीराधा के अनन्त विचित्र विकास-विलास हैं। इस ‘भाव’ में परम और चरम त्याग है। इस पवित्रतम प्रेमराज्य के दिव्य लीला क्षेत्र में श्रीराधाजी, उन अत्यन्त मधुर दिव्य अमृत फलयुक्त नित्य वृक्ष की शाखा-प्रशाखारूपा श्रीगोपांगनाएँ अथवा इनके अनुगत रहने वाले इसी श्रेणी के विशुद्ध प्रेमी भक्तों के द्वारा जो कुछ भी भोग-त्याग, वासना-कामना, साधन-भजन और चेष्टा-क्रिया आदि होते हैं, सब सहज ही अपने प्रियतम भगवान की सेवा के लिये ही होते हैं। प्रियतम भगवान की सेवा बनती रहे और उन्हें सुख प्राप्त होता रहे, यही उनके जीवन का- जीवन के प्रत्येक विचार-आचार का एकमात्र प्रयोजन होता है। वे सेवा के द्वारा प्रियतम भगवान को सुखी करना चाहते हैं, पर स्वयं सुखी होने के लिये उनकी सेवा करते हों - यह बात उनकी कल्पना में भी कभी नहीं आती। यह सत्य है कि प्रियतम को सुखी देखने पर- उनके द्वारा अवान्छनीय होने पर भी उन्हें कोटि- कोटिगुना अधिक सुख मिलता है; परंतु वे इस निजसुख-प्राप्ति के लिये सेवा नहीं करते, वरं जिस निजसुख से प्रियतम- सेवा में जरा भी बाधा पड़ती है, उसे वे महान अपराध मानकर उसका तिरस्कार तथा वर्जन करते हैं। एक बार एक प्रेमिका गोपी अपने प्रियतम भगवान की सहज सेवा कर रही थी। उसको दिखायी दिया- भगवान के मुखमण्डल पर प्रसन्नता छा रही है। यों उनकी प्रसन्नमुद्रा देखते ही गोपी का सुख-समुद्र उमड़ा। नेत्रों में प्रेमाश्रु आ गये। सुख-सागर में निमग्न होने से देह-स्तम्भ रूप सात्त्विक भाव का उदय हो गया। |
संबंधित लेख
क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज