श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
श्रीराधाभाव की एक झाँकीश्रीकृष्ण को नित्य अपने सांनिध्य में ही देखकर सोचती हैं कि मेरे मोह में प्राणनाथ यथार्थ सुख से वंचित हो रहे हैं। अच्छा हो, मुझे छोड़कर ये अन्यत्र चले जायँ तथा सुख-सम्पादन करें, पर श्रीकृष्ण कभी इनसे पृथक् नहीं होते। इस प्रकार प्रेम का प्रवाह चलता रहता है। परम त्याग, परम प्रेम और परम आनन्द— प्रेम की इस पावन त्रिवेणी का प्रवाह अनवरत बहता ही रहता है। एक विचित्र बात तब होती है, जब श्रीकृष्ण मथुरा पधार जाते हैं, श्रीराधा तथा समस्त गोपीमण्डल एवं सारा व्रज उनके वियोग से अत्यन्त पीड़ित हो जाते हैं। यद्यपि श्रीश्यामसुन्दर माधुर्यरूप में नित्य श्रीराधा के समीप ही रहते हैं, पर लोगों की दृष्टि में वे चले जाते हैं। मथुरा से संदेश देकर वे उद्धवजी को व्रज में भेजते हैं। श्याम-सखा श्रीउद्धवजी व्रज में आकर नन्दबाबा एवं यशोदा मैया को सान्त्वना देते हैं, फिर गोपांग-समूह में जाते हैं; वहाँ बड़ा ही सुन्दर प्रेम का प्रवाह बहता है और उसमें उद्धव का समस्त चित्तप्रदेश आप्लावित हो जाता है। तदनन्तर वे श्रीराधिकाजी से एकान्त में बात करते हैं। श्रीराधा की बड़ी ही विचित्र स्थिति है। वे जब उद्धवजी से श्रीश्यामसुन्दर का मथुरा से भेजा हुआ संदेश सुनती हैं, तब पहले तो चकित-सी होकर मानो संदेह में पड़ी हुई-सी कुछ सोचती हैं। फिर कहने लगती हैं— ‘उद्धव! तुम मुझको यह किसका कैसा संदेश सुना रहे हो? तुम झूठमूठ मुझे क्यों भुलावें में डाल रहे हो? मेरे प्रियतम श्रीश्यामसुन्दर तो यहीं हैं। वे कब परदेश गये? कब मथुरा गये? वे तो सदा मेरे पास ही रहते हैं। मुझे देखे बिना एक क्षण भी उनसे नहीं रहा जाता, मुझे न पाकर वे क्षणभर में व्याकुल हो जाते हैं; वे मुझे छोड़कर कैसे चले जाते? फिर मैं तो उन्हीं के जिलाये जी रही हूँ, वे ही मेरे प्राणों के प्राण हैं। वे मुझे छोड़कर चले गये होते तो मेरे शरीर में ये प्राण कैसे रह सकते?’ |
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