श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
कैशोर-रूप में ही श्रीराधा और उनकी कायव्यूहरूपा स्वरूप-शक्तियों के साथ दिव्य रासलीला होती है। व्रज के अतिरिक्त कहीं भी काम कषायशून्य नहीं है। उसमें किसी-न-किसी रूप में आत्मसुख-कल्पना-गन्ध-लेश-रूप कषाय रहता ही है। परंतु श्रीराधा और उनकी कायव्यूहस्वरूपा व्रजांगनाएँ नित्य स्व-सुख-काम-लेश-कल्पना-गन्धशून्य है। एकमात्र श्रीकृष्ण-सुख के लिये उनका श्रीकृष्ण के साथ सम्बन्ध है। श्रीकृष्ण प्रेयसी व्रजांगनाओं के समस्त उद्यम, समस्त प्रयत्न केवल श्रीकृष्ण-सुख-विधान के लिये ही होते हैं। व्रजांगनाओं का- विशेष रूप से श्रीराधा का जीवन केवल श्रीकृष्ण सुखमय ही है। उनका खान-पान, शयन-जागरण, व्यवहार-बर्ताव, आशा-आकांक्षा, भोग-त्याग तो सब श्रीकृष्ण के सुखार्थ हैं ही, उनकी भगवान श्रीकृष्ण के भयानक वियोग-व्यथा से पीड़ित विरह-तापदग्ध देह में प्राणों की रक्षा के लिये होने वाला आर्त क्रन्दन भी श्रीकृष्ण-सुख के लिये है। श्रीकृष्ण के वियोग में वे परम संतप्ता है, मिलन से उन्हें शीतल परमानन्द की प्राप्ति होगी; पर इस अपने दुःखनाश और आनन्दलाभ के लिये वे नहीं रोती-कराहतीं। उनके उस आर्त क्रन्दन में भी केवल श्रीकृष्ण सुख ही तात्पर्य है। वस्तुतः मिलन और वियोग - ‘सम्भोग’ और ‘विप्रलम्भ’ - दोनों ही रति हैं और दोनों में ही परमानन्द-रस की अनुभूति रहती है। संसार के प्राणी-पदार्थों के वियोग में जहाँ केवल दुःख-ही-दुःख, रोना-ही-रोना है, वहाँ भगवान के वियोग में प्रेमी के मन में प्रियतम श्रीकृष्ण की सुखरसमयी संनिधि का अनुभव होता है। वह होता है संयोग तथा वियोग दोनों में ही- संयोग में बाहर और वियोग में भीतर। वरं संयोग में जहाँ समय-स्थान आदि की निर्बाध स्थिति नहीं है, बहुत-से प्रतिबन्धक हैं और केवल एक ही स्थान पर परस्पर मिलन तथा दर्शन होते हैं, वहाँ वियोग में समय-स्थान की कोई बाधा नहीं, सर्वत्र निर्बाध स्वतन्त्र स्थिति है और एक ही जगह नहीं, उस श्रीकृष्ण वियोग के दिव्योन्माद में सर्वत्र श्रीकृष्ण का मिलन, उनके मधुर दर्शन प्राप्त होते हैं। |
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- ↑ उज्ज्वलनीलमणि
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