श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
वैसे देखें तो श्रीकृष्ण ने गोपांगनाओं को दुःख भी बहुत ही सांघातिक दिया। जिन्होंने दुस्त्यजन स्वजनों का तथा आर्यपथ का सहज परित्याग करके- लोक-वेद-कुल की कुछ भी परवा न करके सर्वसमर्पणपूर्वक श्रीकृष्ण का सेवन किया, उन सबको वे सहसा छोड़कर मथुरा पधार गये और फिर कभी उन्हें बुलाने- मिलने का भी नाम नहीं लिया। यह क्या कम दुःख है? पर गोपांगनाओं का और श्रीराधारानी का भाव तनिक भी नहीं बदला, वरं उनका विशुद्ध प्रेम इस कठिन वियोग की स्थिति में भी उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया। एक बार श्रीकृष्ण के इस कठोर व्यवहार को लेकर राधा से सहानुभूति तथा विशेष स्नेह रखने वाली हिताकांक्षिणी एक सखी ने श्रीराधा से इतना-सा कह दिया कि ‘राधे! बड़े ही निष्ठुर- निर्दय हैं। उन पर विश्वास तथा उनके प्रति प्रेम करने में क्या लाभ है? तुम उनके वियोग में इतनी दुःखी हो, रात-दिन जलती रहती हो, इसका उनको पूरा पता है; तब वे भी इस ओर तनिक भी ध्यान नहीं देते। ऐसी परिस्थिति में तुम उनका मन से त्याग कर दो तो सर्वोत्तम है, इस दुःख से त्राण पाने का तो यही उपाय है।’ सखी की बात सुनकर श्रीराधाजी को बड़ी मर्मपीड़ा हुई। पर वे अत्यन्त मधुरहृदया होने के कारण सखी का तीक्ष्ण तिरस्कार न करती हुई उससे कहने लगीं- ‘सखी! तुम ऐसी मूर्खता-भरी बातें मत करो। प्राणनाथ की निन्दा करके मेरे हृदय पर चोट मत पहुँचाओ। मेरे वे जीवन के जीवन सदा सुखी रहें। तुम मुझे उनके गुणों की और उनकी मीठी कुशल की बात सुनाओ। वे दूर रहें या समीप, वस्तुतः वे मुझसे पलभर भी पृथक नहीं रहते। वे निरन्तर (आठों पहर) मेरे हृदय में बसे रहते हैं, कभी भी इधर-उधर नहीं जाते। |
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