श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
श्रीराधा के तत्त्व-स्वरूप-लीला का पुण्यस्मरणवस्तुतः न मैं रमणी हूँ और न तुम रमण ही हो, हम दोनों एक ही परम चिन्मय रसतत्त्व हैं और हमीं दोनों सुन्दर पवित्रतम तत्त्व परस्पर आश्रयालम्बन और विषयालम्बन बनकर नित्य लीला-विलास करते रहते हैं। एक दिन व्रजेन्द्रनन्दन अखिलरसामृतमूर्ति श्रीश्यामसुन्दर को देखकर राधाजी चमत्कृत हो जाती हैं और विशाखा से कहती हैं- <center>
‘सौन्दर्य-सुधा-समुद्र की तरंगों से जो ललनाओं के (प्रेम-भक्ति-साधकों के) चित्तरूप पर्वत को पूर्ण रूप से प्लावित कर देते हैं, जिनके परिहासपूर्ण मनोहर सुवचन कर्ण कुहरों को आनन्द से पूर्ण कर देते हैं, जिनका अंग कोटि-शरदिन्दु की ज्योत्स्ना के सदृश शीतल है, जिनका अधरामृत साक्षात दिव्य पीयूष है और जिनके अधरों के सौरभरूप सुधा-समुद्र से विश्वब्रह्माण्ड सम्प्लावित है - सखि! वे गोपेन्द्रतनय - व्रजेन्द्रनन्दन मेरी समस्त इन्द्रियों का बरबस आकर्षण कर रहे हैं।’ श्यामसुन्दर श्रीराधा-मुखारविन्द्र के निरीक्षणानन्द में मुग्ध थे, उन्हें देखकर विशाखा ने श्रीराधा से कहा- |
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- ↑ गोविन्दलीलामृत
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