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श्रीराधा के तत्त्व-स्वरूप-लीला का पुण्यस्मरण
एक बार बात-चीत के प्रसंग में श्रीराधा के सामने ललिताजी के मुख से ‘कृष्ण’ नाम का उच्चारण हो गया। बस, उसे सुनते ही श्रीराधाजी अत्यन्त विवश होकर कहने लगीं-
‘सखि! ये कैसा मधुर नाम है, इसने तो मेरे कानों में प्रवेश करते ही मेरे सारे धैर्य का हरण कर लिया। बता, यह किसका नाम है? वह कृष्ण कौन हैं?’ ललिता ने श्रीराधा की यह बात सुनकर कहा- ‘अरी रागान्धे राधे! तुम यह कैसी अज्ञता की-सी बात कह रही हो? तुम तो नित्य ही उन श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल पर क्रीड़ा करती हो!; राधाजी ने कहा- ‘सखि! परिहास न करो।’ तब ललिताजी बोलीं - ‘पगली! अभी-अभी तो मैंने तुमको उनके हाथों में सर्पण किया था।’ तदनन्तर श्रीराधारानी बहुत देर तक सोचने के बाद सिर हिलाती हुई बोलीं- ‘हाँ सखि! सत्य है। इन कृष्ण को, बस, अभी आज ही देखा है, सो भी जन्मभर में एक बार केवल बिजली कौंधने की भाँति -
सत्यं सत्यमसौ दृगंगनमगादद्यैव विद्युन्निभः।।
एक दिन निकुन्ज में श्रीराधारानी की प्रिय श्यामसुन्दर के साथ प्रेमचर्चा हो रही थी- तब उन्होंने कुछ ऐसी बातें कहीं, जिन्हें सुनते-सुनते श्यामसुन्दर गद्गद हो गये। राधाजी जो कुछ कहा, उससे पवित्र प्रेम-राज्य में वे किस भूमिका पर स्थित हैं और प्रेम तथा प्रेमलीला का क्या स्वरूप होता है- विचार करने पर इसका कुछ अनुमान लग सकता है। वे बोलीं -
- मेरे तुम, मैं नित्य तुम्हारी, तुम मैं, मैं तुम, संग असंग।
- पता नहीं, कब से मैं तुम बन, तुम मैं बने कर रहे रंग।।
- होता जब वियोग, तब उठती तीव्र मिलन-आकांक्षा जाग।
- पल-अमिलन होता असह्य तब, लगती हृदय दहकने आग।।
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