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वे श्रीकृष्ण की पत्नियों में श्रेष्ठ तथा श्रीकृष्ण के अंगों का सदा प्रिय करने वाली हैं। वे श्रीकृष्ण से सदा संयुक्त रहने वाली भगवती कामेश्वरी- त्रिपुरसुन्दरी का ही दूसरा रूप हैं तथा श्रीकृष्ण के प्रति सदा मधुर वचन बोलती हैं। वे श्रीकृष्ण को ह्लादिनी शक्ति और सुवर्णकी-सी कान्ति से युक्त हैं। कृष्णा-श्यामानाम से विख्यात श्रीकृष्ण की प्रेयसी एवं सतीशिरोमणि हैं। वे श्रीकृष्ण के प्राणों की स्वामिनी, धैर्यवती तथा केलिकुन्ज में निवास करने वाली हैं। और तो क्या, वे श्रीकृष्ण के प्राणों की अधिष्ठात्री एवं श्रीकृष्ण को प्रचुर आनन्द देने वाली हैं। वे राधादेवी स्वयं श्रीकृष्ण के द्वारा सजायी जाती हैं, श्रीकृष्ण-प्रेम में ही तत्पर रहती हैं, श्रीकृष्ण के मन में बसी रहती हैं और श्रीकृष्ण के ही मधुर मनोहर अंगों में सदा प्रीतियुक्त रहती हैं।’ अस्तु,
श्रीराधा स्वकीया थीं या परकीया, यह भी एक व्यर्थ का ही प्रश्न है। जब श्रीकृष्ण और राधा स्वरूपतः नित्य अभिन्न एक ही तत्त्व हैं, तब उनमें अपने-पराये की कल्पना कैसी? जैसे भगवान् निराकार भी हैं, साकार भी हैं और उन दोनों से परे भी हैं, उसी प्रकार श्रीराधाजी स्वकीया भी हैं, परकीया भी हैं और दोनों से परे भी हैं। भगवान् श्रीकृष्ण ने तो यहाँ तक कहा है-
- ये राधिकायां मयि केशवे हरौ
- कुर्वन्ति भेदं कुधियो जना भुवि।
- ते कालसूत्रे प्रपतन्ति दुःखिता
- रम्भोरु यावत् किल चन्द्रभास्करौ।।
‘इस पृथ्वी पर जो कुबुद्धि मानव राधिका में और मुझ केशव में - हरि में भेद-बुद्धि करते हैं, वे जब तक चन्द्र-सूर्य का अस्तित्व है, तब तक कालसूत्र नामक नरक में पड़े हुए दुःख भोगते रहते हैं।’
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