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शिव-ब्रह्मादि देवगण, नारद-सनत्कुमार आदि मुनि, वसिष्ठ-व्यासादि महर्षि, याज्ञवल्क्य- शुकदेव आदि ज्ञानी, अनसूया-अरुन्धती आदि सती-पतिव्रता एवं ब्रह्मविद्या आदि प्रत्यक्ष ज्ञानमूर्ति देवियों आदि के द्वारा उपासित, आराधित, परम गौरवमयी महान महिमामयी, नित्य निर्मल प्रेमाकार-स्वरूपा होने पर भी वे अपने को गौरव-महिमा-विहीन और विकारी हृदय-सम्पन्न बतलाती हैं और नित्य सहज अनुगत होने पर भी पुनः-पुनः वक्र गति का अवलम्बन करती हैं। इस प्रकार उनमें नित्य-निरन्तर अनन्त अचिन्त्य निरतिशय परस्पर-विरोधी धर्म एवं भावों का विकास रहता है।
श्रीराधा और श्रीकृष्ण अभिन्न होने पर भी विलक्षण प्रेम-सम्बन्ध से सम्बन्धित हैं। वे परस्पर प्रेमी भी हैं और प्रेमास्पद भी। परंतु अधिकांश में श्रीराधा ही आश्रयालम्बनस्वरूप बनी हुई श्रीकृष्ण की आराधना करके उन्हें सुख पहुँचाती रहती हैं। श्रीराधा में अनन्त गुण हैं। उनके स्वरूप-गुणों को यथार्थतः पूरा कोई नहीं जानता। फिर कोई बता तो कैसे सकता है। पर प्रेमी भक्तों को उनके निम्नलिखित चौंसठ गुणों की विशेषरूप से उपलब्धि हुई है और वे ये हैं-
- अंग अंग अप्रतिम अमित सौन्दर्य, अतुल माधुर्य महान।
- दिव्य पवित्र अंग-सौरभ, संतत शुचि अधर मधुर मुसकान।।
- नेत्र सुधावर्षिणी दृष्टियुत, चन्चलता वक्रता विशाल।
- दीर्घ कृष्ण कच, सोह चन्द्रिका, वेणि-सुगुम्फित मालति-माल।।
- सुकुमारता, सहज श्री-सुषमा, प्रियदर्शना, विलक्षण रूप।
- सहज सरलता, परम बुद्धिमत्ता, सेवा-रति धैर्य अनूप।।
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