श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
सच तो यह है कि श्रीराधारानी की भगवान श्रीकृष्ण से नित्य अभिन्नता है। स्वयं श्रीकृष्ण ही स्वरूपभूत प्रेम-रसास्वादनार्थ श्रीकृष्णरूप से नित्य विद्यमान हैं और समय-समय पर भारत की पुनीत धरा को परम पवित्र करने के लिये भगवान की भाँति ही वे अपनी प्रकृति (स्वां प्रकृतिम) में अधिष्ठित होकर अपनी निज माया (योगमाया) से प्रकट होती है। केवल श्रीराधा ही नहीं, भगवान तो उस समय अवतरित समस्त वृन्दावन को ही नित्य चिदानन्दमय बतालते हैं। वे कहते हैं-
‘मैं जैसे नित्यविग्रह हूँ, वैसे ही हे रुद्र! ये सभी नित्य हैं। यहाँ मेरे पिता, माता, सखा, गोपगण, गौएँ और वृन्दावन को मेरा आनन्दकन्दस्वरूप ही समझो।’ दिव्य प्रेमराज्य में श्रीराधारानी अधिरूढ़ महाभाव की या मधुरा रति की सकल सम्पदा सम्पन्न सजीव मूर्ति हैं। ‘श्रीकृष्ण मेरे हैं’ इस ‘मदीय रति’ रूप गोपीभाव की चरम तथा परम परिपूर्ण परिणति अथवा इसका मूल उद्गम-स्थान श्रीराधारानी ही हैं। इनकी इस ‘मदीय रति’ के नित्य वशीभूत हो दिव्य प्रेमस्वरूप स्वयं रसराज शिरोमणि श्रीकृष्ण राधा के प्रति आत्मसमर्पण किये रहते हैं और अपनी काव्यूहरूपा समस्त गोपीजनों के समेत श्रीराधा का अपना स्वभाव तथा स्वरूप प्रियतम श्रीकृष्ण का सुख-सम्पादन ही बन जाता है। यही मधुर लीलास्वादन है। वास्तव में इस मधुरोज्ज्वल लीला में एक ही परम रस-तत्त्व आस्वाद्य, आस्वादक तथा आस्वादन-रूप बनकर नित्य लीलायमान है। |
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- ↑ पद्मपुराण, पातालखण्ड
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