श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
कबीरजी ने कहा है–
सुतरां गोपी-प्रेम के आधार पर भगवत-रस-प्रवाह में बहने के लिये सर्वत्याग का आदर्श सामने रखकर साधना में प्रवृत्त होना चाहिये। किसी सर्वत्यागी ऐसे गोपीरूप रसमय प्रेमीजन को ही अपना पथप्रदर्शक बनाकर आगे बढ़ना चाहिये और सदा य देखते रहना चाहिये कि भगवत-प्रीति तथा भोगों से उपरति, भगवान की आत्यन्तिक अखण्ड स्मृति तथा जगत-प्रपन्च की विस्मृति और उत्तरोत्तर भगवत्सेवा में प्रवृत्ति तथा स्व-सुख-वासना की निवृत्ति होती जा रही है या नहीं। यह कसौटी है इस परम पवित्र परम प्रेम के साधन की। अस्तु! श्रीराधा-माधव दोनों नित्य अभिन्न होते हुए नित्य लीलापरायण हैं। उनमें एक-दूसरे को सुखी बनाने की यह प्रेमलीला सदा चलती रहती है और प्रेममूर्ति श्रीगोपांगनाएँ अपने को भूलकर श्रीराधा-माधव की सुखसामग्री के संग्रह में लगी रहती हैं। गोपी का स्वभाव है श्रीराधा-माधव को सुखी करना और राधा का स्वभाव-स्वरूप है श्रीकृष्ण को सुखी करना। सर्वत्र त्याग-ही-त्याग है। इसी से यह लीला सर्वश्रेष्ठ तथा परमोच्च सिद्धि के क्षेत्र की है। इसमें लौकिकता देखना या लौकिक समझकर इसका अनुकरण करना सर्वथा अनुचित और हानिप्रद है। न तो इनकी लीला में कभी कोई संदेह करना चाहिये और न लीला का अनुकरण ही। समर्पण की साधना चलनी चाहिये, किसी त्यागमयी गोपी को आदर्श मानकर संयम और त्याग के प्रशस्त पवित्र पथ से। |
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