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- मैं नहीं मरूँगी कभी- सत्य यह है त्रिकाल; फिर भी प्रियतम।
- यह तन तो सदा जलेगा ही, काली उन लपटों से प्रियतम।।
- फैलेगी धूमराशि नभ में; मैं इतनी दूर चलूँ, प्रियतम।
- धूआँ लगकर पंकिल न बनें वे दृग सरोज-दल से, प्रियतम।।
‘यह त्रिकाल सत्य है कि मैं कभी नहीं मरूँगी; पर यह मेरा शरीर तो उन काली लपटों में सदा जलता ही रहेगा। इससे आकाश में धूएँ के गोट-के-गोट फैल जायँगे। अतः मैं इतनी दूर चली जाऊँ कि जिससे धुआँ लगकर मेरे प्रियतम के वे कमलदलसदृश नेत्र कहीं पंकिल न बन जायँ।’
इस प्रकार प्रियतम के सुख की स्मृति और स्व-सुख का सहज विसर्जन राधा का स्वभाव है। इसी का सहज-स्वभाव अनुकरण श्रीव्रजबालाएँ करतीं और स्वसुख-त्याग तथा विशुद्ध अनुराग के द्वारा वे प्रियतम श्रीकृष्ण के परम प्रेम की पात्री बनकर धन्य होती हैं।
इस परम भगवत्प्रेम की साधना का आरम्भ होता है- भगवान के प्रति अनन्य राग की पवित्र भावना से। भगवान् में राग आरम्भ होते ही सहज स्वाभाविक भोग-वैराग्य, प्रपञ्च की विस्मृति, मन-इन्द्रियों की भोगों से उपरति, स्वसुख-वासना का त्याग और ‘अहं’ की विस्मृति होने लगती है। प्रापञ्चिक भोगासक्ति तो सहज वैसे ही नष्ट हो जाती है, जैसे सूर्योदय होते ही अन्धकारमयी रात्रि। सूर्य को प्रयास करके रात्रि का नाश नहीं करना पड़ता, सूर्योदय के प्रकाश का आभास होते ही रात्रि का अन्धकार मरने लगता है। इसी प्रकार हृदय में इस पवित्र प्रेम का बीज वपन होते ही भोगवासना नष्ट होने लगती है।
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