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‘मैं उन सुजान श्यामसुन्दर को कैसे भूल जाऊँ, एकमात्र उनकी वह स्मृति ही मेरी आत्मा है, वह स्मृति ही मेरा जीवन-प्राण है। प्रियतमन की एक अनन्य अखण्ड स्मृति नित्य-निरन्तर मन में बनी रहती है; उनके अतिरिक्त अन्य सभी प्राणी, पदार्थ, परिस्थिति का मन से विसर्जन हो गया है। उनका वह नित्य नूतन सौन्दर्य, नित्य नव माधुर्य, नित्य नया-नया रूप का विकास, नित्य नया प्रेम, नित्य नूतन प्रेम का गौरव, नित्य नूतन स्नेह और नित्य नवीन भाव दिन-रात मेरे मन में स्मृतिरूप में सुशोभित हैं। उनके नित्य नवीन संगम की मधुर स्मृति मेरे हृदय में नित्य-निरन्तर विराजित रहती है।
उनकी वह गुण-गरिमा, महिमा, उनके द्वारा मिला हुआ सौभाग्य-सुख, उनकी वह रस बरसाती मधुर मुसुकान, मेरे मान करने पर आतुर होकर मनाने की मधुर चेष्टा, उनकी सुधामधुर रस की खान वाणी, उनके वे अरुण चरणकमल, उनका मनोहर मुखमण्डल, मधुमय रूप और उनका वह केशों का रूपश्रृंगार, वे बाँकी भौंहें, विशाल कमलदल-लोचन एवं पैरों के नूपुरों की झनकार सदा ही स्मरण रहती हैं। कहीं उनकी ये बातें जरा-सी सुनने को मिल जाती हैं तो मन हर्ष से पूर्ण हो जाता है। शरीर स्पर्शमात्र से प्रफुल्लित हो जाता है। स्मृति से आत्मा ही सुस्निग्ध हो जाता है एवं नित्य-नूतन स्नेह का उदय होता है।
सैकड़ों करोड़-करोड़ कामदेव जिनकी तुलना में आते लजाते हैं, ब्रह्मा, शिव और सनकादि जिनके गुणों का पार नहीं पाते- उस रूपराशि की एक बार स्वप्न में भी जिसको झाँकी दीख गयी, वही सारे अग-जग को भूलकर विवश होकर अपना सर्वस्व समर्पण करने को बाध्य हो गया। जिनके मधुर मनोहर सुन्दर गुण तथा जिनकी स्वर-लहरी ऐसी अतुलित है कि जो कठोर पाषाण और काष्ठ को भी द्रव्यमय जल बनाकर बहा देती है, मरे हुए वृक्षों को हरे-भरे करके भलीभाँति मुकुलित कर देती है, वायु तथा सूर्य की चाल रोक देती है और समस्त चल चेतनों को अचल कर देती है ऐसे उनको मैंने प्रियतम के रूप में प्राप्त किया! अब भला, मेरा मन उन्हें कैसे भूल जाय?
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