श्रीकृष्ण प्रेमी रसखान 3

‘श्रीकृष्ण प्रेमी रसखान’

श्री चन्द्रदेवजी मिश्र, एम.ए., बी.एड.


कल काननि कुंडल मोर पखा उर पै बनमाल बिराजति है।
मुरली कर में अधरा मुसकानि-तरंग महा छबि छाजति है।।
रसखानि लसै तन पीत पटा सत दामिनि की दुति लाजति है।
वह बाँसुरी की धुनि कान परे, कुल कानि हियौ तजि भाजति है।।

किशोरावस्था को प्राप्त श्याम सुन्दर अब गोप-बालकों के साथ गोचारण हेतु वृन्दावन, यमुना तट जाने लगे हैं। उनके दिव्य सौन्दर्य का अवलोकन करके गोपिकाएँ उनके प्रति अपना तन-मन और प्राण निछावर कर बलैया लेती हैं। मनमोहन अपनी मुरली की तान छेड़कर सबको रिझा लेते हैं। उनके वशीभूत सारी गोपियाँ अपनी मर्यादा को बिसार देती हैं।

जिस दिन से वह नन्दलाल इस व्रज में गायें चरा गया है और मोहक स्वरों में बाँसुरी बजा कर सुना गया है, उसी दिन से कुछ रोग-सा दे कर सबके हृदय में प्रवेश कर गया है, जिससे मर्यादा का ध्यान नहीं रहा तथा व्रज के सभी लोग उसके हाथ बिग गये हैं-
जा दिन तें वह नंद कौ छोहरा या ब्रज धेनु चराय गयौ है।
मोहिनी ताननि गोधन गाय लै बेनु बजाय रिझाय गयौ है।।
वा दिन सों कछु टौना सो कै रसखान हिये मे समाय गयौ है।
कोउ न काहू की कानि करै सिगरो ब्रज बीर बिकाय गयौ है।।

कन्हैया की प्रेमलीला का विलास दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा था। उनकी चोरी-चोरी किसी का मक्खन खा जाना, दही-दूध ढरका देना और किसी गोपी का चीर लेकर वृक्ष की डाल पर बैठ जाना आदि गोपियों के लिय असह्य-सा होता जा रहा था। फिर तो यशोदा जी के पास पहुँच कर वे कन्हैया की शिकायत करने से चूकती नहीं-


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