श्रीकृष्ण गीतावली
7. शोभा-वर्णन
राग बिलावल
(दूसरी सखी बोली-) सखि! आज श्यामसुन्दर यहाँ नींद के बीच से ही उठकर आ गये हैं, तभी तो वे अपने अलसाते हुए सुन्दर नेखों को क्षण-क्षण में बंद कर रहे और खोल रहे हैं ।। 1।। (ऐसा लगता है) मानो चन्द्रमण्डल पर ब्रह्मा जी ने कुछ ललाई लिये हुए दो खंजनों को सजाकर बना (बैठा) दिया है। (गालों तक नाचती हुई) घुँघराली अलकें तो मानो कामदेव के फंदे हैं, जिन्हें सावधानी से हाथ में लेकर वह सँभाले हुए है (और जिनके द्वारा उन खंजनों को वह फँसाना चाहता है। इसी डर से) वे खंजन मानो उड़ना चाहते हैं, अत्यन्त चंचल होकर क्षण-क्षण में पलकरूपी पंखो को फैला देते हैं, पर नासिका रूपी शुक (को देखकर) तथा वचन रूपी कोयल की (मधुर) वाणी को सुनकर, उन (सब) का साथ देखकर (अपने को अकेला न समझकर) (उड़ते नहीं) रह जाते हैं ।। 2-3 ।। मनोहर कपोल हैं, (कानों में) सुन्दर श्रेष्ठ कुण्डल हैं, धनुष के समान टेढ़ी भौंहें है। परम चपल (नेत्ररूपी खंजन) पक्षी मानो उसी के (भौंहरूपी धनुष के) भय से कभी प्रकट हो जाते हैं कभी छिप जाते हैं परंतु हार नही मान रहे हैं ।। 4 ।। तुलसीदास जी कहते हैं कि यदुपति श्रीकृष्ण की मोहिनी मुख–छवि का वर्णन चार मुखवाले बहा्जी भी (करना चाहे तो) करोड़ों कल्पों में भी नहीं कर सकते, जिस (छवि) को देखकर गोपियों ने अपने पिता, पति तथा पुत्रों तक को भुला दिया और (इनके समीप) भाग आयीं ।। 4 ।। |
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