श्रीकृष्ण गीतावली
2. गोपी-उपालम्भ
राग आसावरी
(3) (ग्वालिनी यशोदा जी को उलाहना देती हुई कहती हैं-) तुम्हें श्यामसुन्दर की शपथ है, (तुम्हारे) इस निपट अन्यायी छोटे-से लड़ैते ने (मेरे घर की) जैसी दुर्दशा की है उसे मेरे घर आकर देखो तो सही ।। 1 ।। दूध-दही-माखन की हानि तो सह लेती हूँ, कुछ (भी) नहीं कहती क्योंकि इसी व्रज की बस्ती में रहना है। पर नित्य (नये) बर्तन कौन खरीदे; क्या किसी के घर में धन का खजाना भरा है? ।। 2 ।। निहोरा (अनुनय–विनय) करने पर हँसने लगता है, खीझने से आँखे तरेर कर डाँटता है। जाने अभी से तुम्हारे इस ललित लाल ने ये सब चरित्र कहाँ से सीख लिये हैं? ।। 3 ।। इस समय माँ के मुँह की ओर निहारता हुआ ऐसा सकुचाकर, (सिमटकर स्थिर होकर) बैठा है; मानो (सबकी दृष्टि में) साधु सजना चाहता है। तुलसीदास जी के शब्दों में ग्वालिनी श्रीकृष्ण से कहती हैं कि प्रभु जी! सबेरे जो कुछ कहकर आप भाग आये थे, क्या उन बातों को मैं कह दूँ?' ।। 4 ।। |
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