श्रीकृष्ण गीतावली
8. गोपी-विरह
राग मलार
(48) (एक गोपी ने कहा-) सयानी सखियो! (हम) सब को मिलकर साहस करना चाहिये। कन्हैया को और कुब्जारानी को पैर पड़कर मनाकर (मथुरा से) व्रज में आया जाय ।। 1 ।। इससे गोकुल की राजधानी में सब लोग सुख पूर्वक निवास करेंगे। तथा फिर यहाँ सब प्रकार की सुविधाएँ हो जायेंगी। माता यशोदा और नन्द बाबा भी सुखी होकर जीवन बितायेंगे। (यहाँ व्रज में) आनन्द रूपी मणि की खान खुल जायेगी ।। 2 ।। (अतः) अभिमान और ईर्ष्या छोड़कर अपना हित करना चाहिये। ऐसा (वाल्मीकि व्यास आदि) मुनियों का श्रेष्ठ उपदेश है। (प्राण प्रियतम यहाँ पधारकर कुब्जा के साथ रहेंगे, तो भी) दूसरे-चौथे (दिन) तो उनके दर्शन हो ही जायेगें। यह महान लाभ है (तथा अभिमान-त्यागरूपी) हानि बहुत छोटी है। (कुब्जा पहले दासी अथवा कुरूप थी तो क्या हुआ। भगवान का संग पाकर तो वह भगवत-स्वरूप ही हो गयी।)।। 3 ।। (बबूर, बहेड़ा आदि की) निषिद्ध लकड़ी भी अग्नि में पड़ने पर अग्निरूप ही हो जाती है, यह बात जगत्प्रसिद्ध है। तुलसीदास जी कहते हैं कि नन्द ने जिसे अपनी प्रेयसी होने का सम्मान प्रदान किया है, उस (कुब्जा) का तो (अब) तीनों लोकों में गुणगान होगा ।। 4 ।। |
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