श्रीकृष्ण गीतावली
8. गोपी-विरह
राग बिलावल
(36) भ्रमर (उद्धव जी)! तुम वही बात कहो, जो मनमोहन ने कहला भेजा है। तुम संकोच क्यों करते हो? हम अच्छी तरह जानती हैं कि नन्दनन्दन ने अत्यन्त शठता की है।। 1 ।। उनके मन में सच्चा प्रेम था ही नहीं हमारे मन का संदेह मिट गया है। हमारे मनों को हरण करने वाले श्यामसुन्दर अब खुल पड़े हैं- (उनका कपट चौड़े आ गया है)। उनका यह संदेश भी उपहास (जैसा ही) है। तुलसीदास जी कहते हैं कि अब उनके मिलने की क्या आशा की जाय? जितनी बातें कह गये थे, उनमें से कोई एक भी उन्होंने चित्त में स्थिर नहीं रखी (सच्ची करकें नहीं दिखायी) ।। 2 ।। |
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