श्रीकृष्ण गीतावली
2. गोपी-उपालम्भ
राग आसावरी
(5) (यशोदा मैया ग्वालिनों से कहती हैं- मेरा कन्हैया तो) कभी दूसरे के घर जाता ही नहीं। मैं तो इसको सदा बलराम के साथ अपने आँगन में ही खेलते देखती हूँ ।। 1 ।। मेरे यहाँ दूध-दही-माखन की थाह (सीमा) थोड़े ही है (जो यह दूसरे घर जाय); मेरे इस घर में नवों निधियाँ भरी हैं। ये ग्वालिनें बिना ही प्रयोजन उलाहना देने के बहाने आकर यहाँ खड़ी बक रही हैं ।। 2 ।। (फिर) माता अपने श्यामसुन्दर को सीख देती है- (मेरे लाल!) मैं बलिहारी जाती हूँ, तुम कहीं मत जाया करो। बेटा! (देखो,) इनके घर जाने से ये रुष्ट होती हैं और बिना ही कारण जबरदस्ती तुम पर दोष लगा रही हैं ।। 3 ।। ग्वालिनें श्रीहरि के मुख को निरखकर और (यशोदा जी के) कठोर वचन सुनकर अधिक-अधिक सुख पा रही हैं। तुलसीदास जी कहते हैं कि वे तो श्रीलक्ष्मीजी के हदय के इस ललित रत्न प्रभु श्रीकृष्ण को देखते ही रहना चाहती हैं। (इसीलिये तो वे उलाहने के बहाने आया करती हैं।) ।। 4 ।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पाठभेद- ठाली
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