श्रीकृष्ण गीतावली
8. गोपी-विरह
राग बिलावल
(24) (प्रियतम श्यामसुन्दर के मथुरा चले जाने पर उनके वियोग में अपने नेत्रों को दोष देती हुई गोपी कहती है) सखी! आज श्रीव्रजराज के बिछुड़ते ही इन नेत्रों का भी विश्वास जाता रहा ( इन्हें या तो श्यामसुन्दर के साथ ही चले जाना चाहिये था या फिर श्याम को ही अंदर लेकर स्वंय श्याममय हो जाना था, पर ये न तो सारे सम्बन्धों को तिलांजलि देकर उड़कर उनके साथ ही लग गये और न श्याममय ही हो सके ।। 1 ।। इनको रूप के रसिया तथा सौन्दर्य के लोभी कहा जाता है, पर वैसी करनी तो इनसे कुछ भी नहीं हुई। (ये सब बनावटी बातें हैं।) वास्तव में ये क्रूर, कुटिल तथा श्यामता लिये हुए सफेद हैं। (ऊपर से साफ दीखते हैं, पर हृदय के बड़े काले हैं- धोखा देना ही इनका काम है)। इन्होंने ( मछली-जैसे सुन्दर कहलाकर) मछली की शोभा को व्यर्थ ही छीन लिया है (क्योंकि मछली तो जल के बिना रहती ही नहीं)। ये श्रीकृष्ण के बिना भी बने हुए हैं।। 2 ।। अब ये (निगोड़े) किसलिये शोक करते और आँसू बहाते हैं, समय निकल जाने के बाद ऐसा करना (रोना-धोना) तो चित्त में नयी शूल पैदा करने वाला है। तुलसीदास जी कहते हैं कि तब तो ये अपने-आप ही जड़ हो गये थे, जब पलकों ने हठ करके इन्हें धोखा दिया था। (श्यामसुन्दर के जाते समय उनका जाना देखा नहीं गया। पलकों ने पड़कर गोपियों की आँखे बन्द कर दीं, इसी बीच में श्यामसुन्दर का रथ निकल गया।) ।। 3 ।। |
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