श्रीकृष्ण गीतावली -तुलसीदास पृ. 29

श्रीकृष्ण गीतावली

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8. गोपी-विरह
राग बिलावल

(24)
बिछुरत श्रीब्रजराज आजु
इन नयनन की परतीति गई।
उड़ि न लगे हरि संग सहज तजि,
है न गए सखि स्याममई ।। 1 ।।
रूप रसिक लालची कहावत,
सो करनी कछु तौ न भई।
साचेहुँ कूर कुटिल सित मेचक,
बृथा मीन छबि छीन लई ।। 2 ।।
अब काहें सोचत मोचत जल,
समय गएँ चित सूल नई।
तुलसीदास जड़ भए आपहि तें,
जब पलकनि हठि दगा दई ।। 3 ।।

(प्रियतम श्यामसुन्दर के मथुरा चले जाने पर उनके वियोग में अपने नेत्रों को दोष देती हुई गोपी कहती है) सखी! आज श्रीव्रजराज के बिछुड़ते ही इन नेत्रों का भी विश्वास जाता रहा ( इन्हें या तो श्यामसुन्दर के साथ ही चले जाना चाहिये था या फिर श्याम को ही अंदर लेकर स्वंय श्याममय हो जाना था, पर ये न तो सारे सम्बन्धों को तिलांजलि देकर उड़कर उनके साथ ही लग गये और न श्याममय ही हो सके ।। 1 ।। इनको रूप के रसिया तथा सौन्दर्य के लोभी कहा जाता है, पर वैसी करनी तो इनसे कुछ भी नहीं हुई। (ये सब बनावटी बातें हैं।) वास्तव में ये क्रूर, कुटिल तथा श्यामता लिये हुए सफेद हैं। (ऊपर से साफ दीखते हैं, पर हृदय के बड़े काले हैं- धोखा देना ही इनका काम है)। इन्होंने ( मछली-जैसे सुन्दर कहलाकर) मछली की शोभा को व्यर्थ ही छीन लिया है (क्योंकि मछली तो जल के बिना रहती ही नहीं)। ये श्रीकृष्ण के बिना भी बने हुए हैं।। 2 ।। अब ये (निगोड़े) किसलिये शोक करते और आँसू बहाते हैं, समय निकल जाने के बाद ऐसा करना (रोना-धोना) तो चित्त में नयी शूल पैदा करने वाला है। तुलसीदास जी कहते हैं कि तब तो ये अपने-आप ही जड़ हो गये थे, जब पलकों ने हठ करके इन्हें धोखा दिया था। (श्यामसुन्दर के जाते समय उनका जाना देखा नहीं गया। पलकों ने पड़कर गोपियों की आँखे बन्द कर दीं, इसी बीच में श्यामसुन्दर का रथ निकल गया।) ।। 3 ।।

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श्रीकृष्ण गीतावली -तुलसीदास
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. बाल-लीला 1
2. गोपी-उपालम्भ 4
3. उलूखल-बन्धन 15
4. इन्द्रकोप-गोवर्धन-धारण 21
5. गोचारण अथवा छाक-लीला 40
6. यमुना तट पर वंशीवादन 24
7. शोभा-वर्णन 5
8. गोपी-विरह 29
9. भक्त-मर्यादा-रक्षण 71
पदों की वर्णानुक्रमणिका
1. अब सब साँची कान्ह तिहारी। 6
2. अबहिं उरहनो दै गई, बहुरौ फिरि आई। 8
3. अब ब्रज बास महरि किमि कीबो। 9
4. आजु उनीदे आए मुरारी। 26
5. आलि! अब कहुँ जनि नेह निहारि। 33
6. आली! टति अनुचित, उतरु न दीजैं। 52
7. ऊधो! या ब्रज की दसा बिचारौ। 40
8. ऊधो जू कह्यो तिहारोह कीबो। 42
9. ऊधो! यह ह्या न कछू कहिबे ही। 47
10. ऊधो हैं बड़े, कहैं सोइ कीजै। 53
11. ऊधो! प्रीति करि निरमोहियन सों को न भयो दुख दीन?। 63
12. ऐसो हौंहुँ जानति भृंग! 62
13. कबहुँ न जात पराए धामहिं। 5
14. कहा भयो कपट जुआ जौ हौं हारी। 71
15. करि है हरि बालक की सी केलि। 32
16. कही है भली बात सब के मन मानी। 56
17. कान्ह, अलि, भए नए गुरू ग्यानी। 54
18. काहे को कहत बचन सँवरि। 61
19. कोउ सखि नई बात सुनि आई। 39
20. कौन सुनै अलि की चतुराई। 59
21. गहगह गगन दुंदुभी बाजी। 73
22. गावत गोपात लाल नीकें राग नट हैं। 24
23. गोपाल गोकुल बल्लवी प्रिय गोप गोसुत बल्लभं। 28
24. गेकुल प्रीति नित नई जानि। 25
25. छपद! सुनहु बर बचन हमारे। 66
26. छाँडो मेरे ललन! ललित लरिकाई। 13
27. छोटी मोटी मीसी रोटी चिकनी चुपरि कै तू 2
28. जब ते ब्रज तजि गये कन्हाई। 35
29. जानी है ग्वालि परी फिरि फीकें। 10
30. जो पै अलि! अंत इहै करिबो हो। 46
31. जौलौं हौं कान्ह रहौं गुन गोए। 11
32. टेरीं (कान्ह) गोबर्धन गैया। 22
33. ताकी सिख ब्रज न सुनैगो कोउ भोरें। 51
34. तोहि स्याम की सपथ जसोदा! आइ देखु गृह मेंरें। 3
35. दीन्ही है मधुप सबहि सिख नीकी। 50
36. देखु सखी हरि बदन इंदु पर। 25
37. नहिं कछु दोष स्याम को माई। 30
38. ब्रज पर घन घमंड करि आए। 21
39. बिछुरत श्रीब्रजराज आजु 29
40. भली कही, आली हमहुँ पहिचाने। 25
41. भूलि न जात हौं काहू के काऊ। 45
42. महरि तिहारे पायँ परौं, अपनो ब्रज लीजै। 7
43. मधुकर! कहहु कहन जो पारौ। 41
44. मधुकर! कान्ह कही ते न होही। 48
45. मधुप! समुझि देखहु मन माही। 68
46. मधुप! तुम्ह कान्ह ही की कही क्यों न कही है? 49
47. ( माता) लै उछंग गोबिंद मुख बार-बार निरखै। 1
48. मेने जान और कछु न मन गुनिए। 44
49. मो कहँ झूठेहुँ दोष लगावहिं। 4
50. मोको अब नयन भए रिपु माई! 69
51. ललित लालन निहारि, महरि मन बिचारि, 19
52. लागियै रहति नयननि आगे तें 34
53. लेत भरि भरि नीर कान्ह कमल नैन। 16
54. सब मिलि साहस करिय सयानी। 55
55. ससि तें सीतल मोकौं लागै माई री! तरनि। 36
56. सो कहौ मधुप! जे मोहन कहि पठई। 43
57. सुनत कुलिस सम बचन तिहाने। 64
58. संतत दुखद सखी! रजनीकर। 37
59. हरि को ललित बदन निहारु 15
60. हा हा री महरि! बारो, कहा रिस बस भई, 17
61. हे हम समाचार सब पाए। 57

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