श्रीकृष्ण गीतावली
8. गोपी-विरह
राग सोरठा
(35) गोपियों ने कहा- अच्छा, उद्धव जी! हम तुम्हारा ही कहा करेंगी। हमारे हृदय की बात अच्छी तरह जानकर और अपने स्वरूप को समझकर (फिर उचित) शिक्षा दो ।। 1 ।। यदि श्यामसुन्दर के वियोगी-उनके विरहानल से जलते हुए व्रजवासियों को योगसाधना के योग्य समझते हो तो हम तुम्हारे पैरों पड़ती हैं, तुम संकोच छोड़कर (हृदय खोलकर) परमार्थ को व्याख्या करो ।। 2 ।। जरा सोचो तो- ये गोपी, गोप, गायें, बछड़े-अभी (सदा) (श्रीकृष्ण के सुन्दर) रूप में ही अनुरक्त रहते हैं। आज (उनके वियोग से) दीन, म्लान और शरीर से क्षीण हुए वैसे ही (छटपटापते हुए) भटक रहे हैं, जैसे माजा (राग) से पीड़ित मछिलियाँ ।। 3 ।। तुलसीदास जी कहते हैं- यह सभी जानते हैं कि प्रेम दुःख ही देता है, फिर भी हमारा मन कन्हैया जी के मन-सरीखा (निष्ठुर) नहीं होता (कि उनकी तरह स्न्नेह का बन्धन तोड़कर हम भी सुखी हो जायँ)। (यदि कोई पूछे कि कृष्ण ऐसा क्यों करते हैं? तो इसका उत्तर यह है कि) स्वमी को सभी बातें फबती हैं (वे कुछ भी करें उचित ही है) ।। 4 ।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सुखदायक
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