श्रीकृष्ण गीतावली
8. गोपी-विरह
राग केदार
(52) भ्रमर! गोकुल में तो नित्य नवीन प्रेम (की छटा छायी रहती) है, यह समझकर (किसी) दूसरी जगह जाकर अपनी यह ज्ञान की पुरानी गाथा सुनाओ ।। 1 ।। तुम्हें बूढ़े योगी मिलें; उन्हीं को यह निर्गुण को खान दिखलाना। (यहाँ) व्रज में तो सगुणरूप नित्य नवीन व्रज राजकुमार के सुन्दर यश का ही वर्णन करो ।। 2 ।। हमने तुम्हारा जो आदर किया है, सो तो (केवल) व्रज के कमल (श्रीकृष्णचन्द्र) की कान मानकर ही (यह समझकर कि तुम उनके सखा हो, उन्होंने तुमको भेजा है, अतः तुम्हारा सम्मान करना चाहिये, न कि तुम्हार ज्ञान सुनने के लिये तुम्हें ज्ञानी मानकर) किया है। अतः तुलसीदास जी कहते हैं- कि इस बात को समझकर अपनी यह ज्ञान का उपदेश करने की बान छोड़ दो ।। 3 ।। |
टीका टिप्पणी व संदर्भ
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