श्रीकृष्ण गीतावली
8. गोपी-विरह
राग मलार
(39) (एक गोपी ने कहा-) अरे भ्रमर! यदि उन्हेंं अन्त में यही करना था (हमें रोती-बिलखती छोड़कर चले ही जाना था) तो बलपूर्वक असंख्य गोप-अबलाओं का हृदय-हरण नहीं करना चाहिऐ था ।। 1 ।। यदि प्रेम के नाम पर छल-कपट करके फिर अनुचित आचरण (कुब्जा से प्रेम) करना था तो (पहले से ही) मथुरा में महान महत्त्व (स्वामित्व) प्राप्त करके (वहीं के निवासियों पर) सारी करुणावत्ति को लेकर रीझना चाहिये था (यहाँ हम गँवारिनों से सम्बन्ध नहीं जोड़ना चाहिये था) ।। 2 ।। (पर उन्हें तो) कुब्जा को सुन्दर रूप देकर व्रज की याद आने पर घर के लौकिक डर से डरना था। (हम लोगों के साथ प्रेम करने से उनकी बदनामी होगी, ऐसा मानकर हम से सम्बन्ध तोड़ना था और) ज्ञान-वैराग्य की शिक्षा तथा (संयोग-वियोग आदि) सब कुछ काल एवं पूर्वकृत कर्मों से होता है, यह उपदेश हमारे ही सिर लादना था (ज्ञान, वैराग्य तथा प्रारब्ध का उपदेश देकर हम से सम्बन्ध तोड़ना था, इसी से तुमको यहाँ भेजा हैं)।। 3 ।। उन (श्रीकृष्ण) का तो हमारे प्रति उतना ही राग है, जितना सूर्य का बादल के जल से होता है। (सूर्य जल को आकर्षित करके मेध रूप में परिणत कर देता है और फिर उससे कोई सम्बन्ध नहीं रखता।) उन्हें तो (अब) राजा की मर्यादा का पालन करना हैं। (इधर) हम लोगों को तो कठोर उपाधिरहित (निर्गुण रूप) जल-सागर कों अपनी भुजाओं के बल से पार करना हैं ।। 4 ।। तुलसीदास जी कहते हैं- हमारा तो सब प्रकार से भला ही हुआ, एक बार तो हमें मरना था ही। अब तो, श्रीकृष्ण-विरह के नित्य नये संताप से जल-जलकर जीवन बिताना होगा ।। 5 ।। |
टीका टिप्पणी व संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज