श्रीकृष्ण गीतावली
2. गोपी-उपालम्भ
राग केदारा
(8) (ग्वालिनी की बात पर मैया को विश्वास-सा करते देखकर श्रीकृष्ण रोते से कहने लगे-मैया!) यह अभी-अभी तो उलाहना देकर गयी थी, फिर लौटकर आ गयी। मैया! सुन, मैं तेरी शपथ करके कहता हूँ इसका तो लड़ने का स्वभाव हो गया है। यह शील-संकोच को तो मानो बेचकर खा गयी है।। 1 ।। इस व्रज में लड़के तो बहुत है, क्या मैं ही एक अन्यायी हूँ (जो बार-बार मुझ पर ही दोष मँढ़ती चली आती है)? तेरे मुँह लगाने से तो यह सिर पर ही चढ़ गयी है। आखिर अहीरनी ही तो है, तुम इसे बहुत सीधी मिल गयी ।। 2 ।। अपने लाल की बड़ी चतुराई (भरी बात) सुनकर यशोदा जी मुसकराने लगीं। तुलसीदास जी कहते हैं- गवालिनी तो (श्रीकृष्ण की बोली सुनकर) ठगी-सी रह गयी। उससे (कोई) उत्तर देते न बना। कन्हैया ने उस पर (मानो) कुछ टोना कर दिया हो ।। 3 ।। |
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज