श्रीकृष्ण गीतावली
7. शोभा-वर्णन
राग गौरी
(23) (गोपांगनाओं की इस मिलन लीला के प्रेम का दिग्दर्शन कराकर अब श्रीतुलसीदास जी विरहलीला के प्रेम का स्वरूप बतलाना चाहते हैं। श्यामसुन्दर मथुरा पधार गये हैं। एक सखी प्रियतक श्रीकृष्ण की रूप माधुरी को मानो अपने सामने देखती हुई कहती है कि बस मैं तो उन सुर-मुनि-दुर्लभ श्रीकृष्ण-चरण-कमल का ही सेवन करूँगी) श्रीकृष्ण गौओं के रक्षक हैं, हम गोकुल की ग्वालिनियों के प्रियतम हैं, गोपों तथा गो–सुतों (बछड़ो) के प्राणप्रिय हैं, भजन करने योग्य तो (एकमात्र) उनके चरणारविन्द ही हैं, यद्यपि वे (भक्ति से शून्य देव-मुनियों के लिये भी दुर्लभ हैं, मैं तो बस, उन चरण–कमलों का ही भजन करती हूँ। (मेरे सर्वस्व तो वे ही हैं) ।। 1।। (अहा!) उन नव-नीरद श्यामसुन्द की अनेक कामदेवों के समान शोभा है, वे त्रिभुवन-मोहन हैं, सबके मनों को हरण करने वाले हैं, कमल के केसर–सदृश पीत पट धारण किये हुए हैं, किशोर मूर्ति हैं, अनन्त गुणों से युक्त हैं, करूणा की खान है। ।। 2 ।। उनके सिर पर मयूरपिच्छ शोभित है, कानों में कुण्डल नाच रहे हैं, अरूण कमल के सदृश नेत्र हैं, गुंजाओं की माला है, समस्त अडों को धातुओं से चित्रित कर रखा है, वे संसार-भय से मुक्त करने वाले हैं ।। 3 ।। उनकी घुँघराली टेढ़ी केशराशि है, सुन्दर तिलक है, मनोहर भौंहें हैं, पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान मुख है। तुलसीदास जी कहते हैं, वे वृन्दावन विहारी श्यामसुन्दर ही हमारी त्रास हरण करने में समर्थ हैं ।। 4 ।। |
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज