श्रीकृष्ण गीतावली
8. गोपी-विरह
राग केदार
(53) भ्रमर! क्यों सँवार–सँवारकर (इतनी) बातें कहते हो? (यहाँ) व्रज में (तुम्हारे) ज्ञान का (कोई) ग्राहक है ही नहीं। (ज्ञान का उपदेश करना हो तो किसी) दूसरी जगह पधारो! ।। 1 ।। हम (गाँव की) गँवरियाँ (केवल) धुएँ का छौंक देने की (निर्गुण की चर्चा करने की) युक्तियों को नहीं समझेगी। योगिजनों और मुनियों की मण्डली में (जाकर अपनी) इस ख़ाली गगरी को उँडेलो ।। 2 ।। तुलसीदास जी कहते हैं- भला, उनकी कौन सुने, जिनके लिये जीत-हार है ही नहीं (जो केवल समता की ही झड़ी लगाये रहते हैं) और जो अपनी (वाक्) शक्ति से बादल के जल की (हमारे सरस हृदय की सारी सुधा-धारा को) भी खारा कर देना चाहते हैं ।। 3 ।। |
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ सकल
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज