श्रीकृष्ण गीतावली
8. गोपी-विरह
राग धनाश्री
(29) सखी! जब से श्रीकान्हकुँवर व्रज को छोड़कर गये हैं, तभी से उनके बिछोहरूपी वृष राशि को पाकर (ज्येष्ठ का) विरहरूपी (घोर ताप देने वाला) सूर्य एकरस (अत्यन्त प्रचण्ड होकर) उदित हो रहा है।। 1 ।। न तो उस (विरहरूपी प्रचण्ड सूर्य) का तेज ही घटता है, न उसका रथ ही (आगे) चलता है (अर्थात विरह का घोर ताप स्थिर हो गया है), वह हृदय रूपी आकाश पर छा रहा है। इन्द्रियाँ अन्य सबकी सुधि भुलाकर (श्रीश्यामसुन्दर की मनोहर) रूपराशि का ही चिन्तन कर रही हैं ।। 2 ।। (यह विरह सूर्य का प्रचण्ड ताप) जहाँ (एक ओर) शोकरूपी चकवे, भयरूपी कमल तथा भ्रमरूपी भ्रमरों को सुखदायी हुआ, वहीं (दूसरी ओर) चितरूपी चकोर, मनरूपी मयूर और मोदरूपी कुमुद-ये सब अत्यन्त व्याकुल हो गये ।। 3 ।। शरीररूपी सरोवर का बलरूपी जल सूखने लगा, उस पर कुरूपता की काई भी पड़ गयी, प्राणरूपी मछलियाँ दिनो दिन दीन और दुर्बल होने लगीं, उनकी दशा (इस समय) असह्म हो गयी है।। 4 ।। तुलसीदास जी कहते हैं कि मन के मनोरथरूपी हरिन जहाँ-तहाँ दौड़कर(ताप से) मर रहे हैं। श्रीबलराम और श्यामसुन्दररूपी श्रावण भाद्रपद के (आये) बिना हृदय की यह जलन कभी शान्त नहीं होगी ।। 5 ।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अति
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