श्रीकृष्ण गीतावली -तुलसीदास पृ. 35

श्रीकृष्ण गीतावली

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8. गोपी-विरह
राग धनाश्री

(29)
जब ते ब्रज तजि गये कन्हाई।
तब ते बिरह रबि उदित एकरस सखि! बिछुरन बृष पाई ।। 1 ।।
घटत न तेज, चलत नाहिन रथए रह्यो उर नभ पर छाई।
इन्द्रिय रूप रासि सोचहि सुठि सुधि सब की बिसराई ।। 2 ।।
भया सोक भय[1] कोक कोकनद भ्रम भ्रमरनि सुखदाई।
चित चकोर, मन मोर, कुमुद मुद, सकल बिकल अधिकाई ।। 3 ।।
तनु तड़ाग बल बारि सुखन लाग्यो परि कुरुपता काई।
प्रान मीन दिन दीन दूबरेए दसा दुसह अब आई ।। 4 ।।
तुलसीदास मनोरथ मन मृग मरत जहाँ तहँ धाई।
राम स्याम सावन भादौं बिनु जिय की जरनि न जाई ।। 5 ।।

सखी! जब से श्रीकान्हकुँवर व्रज को छोड़कर गये हैं, तभी से उनके बिछोहरूपी वृष राशि को पाकर (ज्येष्ठ का) विरहरूपी (घोर ताप देने वाला) सूर्य एकरस (अत्यन्त प्रचण्ड होकर) उदित हो रहा है।। 1 ।। न तो उस (विरहरूपी प्रचण्ड सूर्य) का तेज ही घटता है, न उसका रथ ही (आगे) चलता है (अर्थात विरह का घोर ताप स्थिर हो गया है), वह हृदय रूपी आकाश पर छा रहा है। इन्द्रियाँ अन्य सबकी सुधि भुलाकर (श्रीश्यामसुन्दर की मनोहर) रूपराशि का ही चिन्तन कर रही हैं ।। 2 ।। (यह विरह सूर्य का प्रचण्ड ताप) जहाँ (एक ओर) शोकरूपी चकवे, भयरूपी कमल तथा भ्रमरूपी भ्रमरों को सुखदायी हुआ, वहीं (दूसरी ओर) चितरूपी चकोर, मनरूपी मयूर और मोदरूपी कुमुद-ये सब अत्यन्त व्याकुल हो गये ।। 3 ।। शरीररूपी सरोवर का बलरूपी जल सूखने लगा, उस पर कुरूपता की काई भी पड़ गयी, प्राणरूपी मछलियाँ दिनो दिन दीन और दुर्बल होने लगीं, उनकी दशा (इस समय) असह्म हो गयी है।। 4 ।। तुलसीदास जी कहते हैं कि मन के मनोरथरूपी हरिन जहाँ-तहाँ दौड़कर(ताप से) मर रहे हैं। श्रीबलराम और श्यामसुन्दररूपी श्रावण भाद्रपद के (आये) बिना हृदय की यह जलन कभी शान्त नहीं होगी ।। 5 ।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अति

संबंधित लेख

श्रीकृष्ण गीतावली -तुलसीदास
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. बाल-लीला 1
2. गोपी-उपालम्भ 4
3. उलूखल-बन्धन 15
4. इन्द्रकोप-गोवर्धन-धारण 21
5. गोचारण अथवा छाक-लीला 40
6. यमुना तट पर वंशीवादन 24
7. शोभा-वर्णन 5
8. गोपी-विरह 29
9. भक्त-मर्यादा-रक्षण 71
पदों की वर्णानुक्रमणिका
1. अब सब साँची कान्ह तिहारी। 6
2. अबहिं उरहनो दै गई, बहुरौ फिरि आई। 8
3. अब ब्रज बास महरि किमि कीबो। 9
4. आजु उनीदे आए मुरारी। 26
5. आलि! अब कहुँ जनि नेह निहारि। 33
6. आली! टति अनुचित, उतरु न दीजैं। 52
7. ऊधो! या ब्रज की दसा बिचारौ। 40
8. ऊधो जू कह्यो तिहारोह कीबो। 42
9. ऊधो! यह ह्या न कछू कहिबे ही। 47
10. ऊधो हैं बड़े, कहैं सोइ कीजै। 53
11. ऊधो! प्रीति करि निरमोहियन सों को न भयो दुख दीन?। 63
12. ऐसो हौंहुँ जानति भृंग! 62
13. कबहुँ न जात पराए धामहिं। 5
14. कहा भयो कपट जुआ जौ हौं हारी। 71
15. करि है हरि बालक की सी केलि। 32
16. कही है भली बात सब के मन मानी। 56
17. कान्ह, अलि, भए नए गुरू ग्यानी। 54
18. काहे को कहत बचन सँवरि। 61
19. कोउ सखि नई बात सुनि आई। 39
20. कौन सुनै अलि की चतुराई। 59
21. गहगह गगन दुंदुभी बाजी। 73
22. गावत गोपात लाल नीकें राग नट हैं। 24
23. गोपाल गोकुल बल्लवी प्रिय गोप गोसुत बल्लभं। 28
24. गेकुल प्रीति नित नई जानि। 25
25. छपद! सुनहु बर बचन हमारे। 66
26. छाँडो मेरे ललन! ललित लरिकाई। 13
27. छोटी मोटी मीसी रोटी चिकनी चुपरि कै तू 2
28. जब ते ब्रज तजि गये कन्हाई। 35
29. जानी है ग्वालि परी फिरि फीकें। 10
30. जो पै अलि! अंत इहै करिबो हो। 46
31. जौलौं हौं कान्ह रहौं गुन गोए। 11
32. टेरीं (कान्ह) गोबर्धन गैया। 22
33. ताकी सिख ब्रज न सुनैगो कोउ भोरें। 51
34. तोहि स्याम की सपथ जसोदा! आइ देखु गृह मेंरें। 3
35. दीन्ही है मधुप सबहि सिख नीकी। 50
36. देखु सखी हरि बदन इंदु पर। 25
37. नहिं कछु दोष स्याम को माई। 30
38. ब्रज पर घन घमंड करि आए। 21
39. बिछुरत श्रीब्रजराज आजु 29
40. भली कही, आली हमहुँ पहिचाने। 25
41. भूलि न जात हौं काहू के काऊ। 45
42. महरि तिहारे पायँ परौं, अपनो ब्रज लीजै। 7
43. मधुकर! कहहु कहन जो पारौ। 41
44. मधुकर! कान्ह कही ते न होही। 48
45. मधुप! समुझि देखहु मन माही। 68
46. मधुप! तुम्ह कान्ह ही की कही क्यों न कही है? 49
47. ( माता) लै उछंग गोबिंद मुख बार-बार निरखै। 1
48. मेने जान और कछु न मन गुनिए। 44
49. मो कहँ झूठेहुँ दोष लगावहिं। 4
50. मोको अब नयन भए रिपु माई! 69
51. ललित लालन निहारि, महरि मन बिचारि, 19
52. लागियै रहति नयननि आगे तें 34
53. लेत भरि भरि नीर कान्ह कमल नैन। 16
54. सब मिलि साहस करिय सयानी। 55
55. ससि तें सीतल मोकौं लागै माई री! तरनि। 36
56. सो कहौ मधुप! जे मोहन कहि पठई। 43
57. सुनत कुलिस सम बचन तिहाने। 64
58. संतत दुखद सखी! रजनीकर। 37
59. हरि को ललित बदन निहारु 15
60. हा हा री महरि! बारो, कहा रिस बस भई, 17
61. हे हम समाचार सब पाए। 57

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