श्रीकृष्ण गीतावली
8. गोपी-विरह
राग धनाश्री
(28) (सखी श्यामसुन्दर की रूपमाधुरी का बखान करती हुई कहती है- मोहन की असंख्य कामदेवों की शोभा से सम्पन्न नीलकमल के सदृश (सुकोमल श्यामकान्ति) मूर्ति जिसके पवित्र हृदय में (एक बार भी) स्फुरित हो जाती है, फिर वह उसके नेत्रों में लगी ही रहती है, सामने से कभी हटती ही नहीं ।। 1।। असंख्यों सरस्वती और शेष उनके एक-एक अंग की शोभा का वर्णन भी नहीं कर सकते; (फिर पूरे श्रीविग्रह के सौन्दर्य का बखान तो कोई कर ही क्या सकता है। तुलसीदास जी कहते हैं कि बड़े सौभाग्य से यदि प्रभु की उस (मोहिनी मूर्ति) में किसी का मन लग जाता है तो फिर उतने से ही उसके सम्पूर्ण सुखों की पूर्ति हो जाती है।। 2 ।। |
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