श्रीकृष्ण गीतावली
8. गोपी-विरह
राग गौरी
(58) हे भ्रमर! (तुम स्वयं) मन में विचारकर देखो। अमृतरूपी प्रेम (श्रीकृष्णरूप) चन्द्रमा को छोड़कर अरे भ्रमर! (प्रचण्ड प्रकाशरूप ज्ञान) सूर्य से किस प्रकार मिल सकता है? ।। 1 ।। यद्यपि तुम(हमारे) हित के लिये ही कह रहे हो और हम भी कानों से (तुम्हारे ये) वचन सुन रही हैं, फिर भी (हमारे) हृदय में (तुम्हारी ये बातें) प्रवेश ही नहीं करतीं। खोचते-खोजते चाहे सौ कल्प बीत जायँ, पर (ज्ञानरूप) अग्नि में बर्फ के कण (हृदय को शीतल-शान्त-सुखी कर देने वाले प्रेम के कण) नहीं मिल सकते ।। 2 ।। तुम कह रहे हो और हम भी प्रयत्न करके हार गयी हैं, किंतु हमारे हठीले नेत्र अपना हठ छोड़ते ही नहीं। तुलसीदास जी कहते हैं-(उद्धव जी!) अब तो कुछ ऐसा प्रयत्न करो जिससे श्यामसुन्दर एक बार यहाँ आकर (फिर चाहे भले ही लौट जायँ) ।। 3 ।। |
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