व्रजांगनाओं का भगवत्प्रेम 3

व्रजांगनाओं का भगवत्प्रेम


गोपियों ने तभी तो उद्धव जी से कहा है-

स्याम तन स्याम मन स्याम है हमारो धन,
आठों जाम ऊधौ हमें स्याम ही सों काम है।
स्याम हिये स्याम जिये स्याम बिनु नाहिं तिये,
आँधेकी-सी लाकरी आधार स्याम नाम है।।
स्याम गति स्याम मति स्याही हैं प्रानपति,
स्याम सुखदाई सों भलाई सोभाधाम है।
ऊधो तुम भए बौरे पाती लैके आए दौरे,
जोग कहाँ राखैं यहाँ रोम-रोम स्याम है।।

अनात्म प्रेम, भौमिक प्रेम और शारीरिक प्रेम भगवत्प्रेम के आगे फीके पड़ जाते हैं। कृष्णप्रेम के रंग में रँगी आँखें किसी दूसरे को नहीं निहारतीं। प्रेमी चाहता है कि आँखें सर्वत्र उसे ही देखती रहें, परम प्रेमास्पद परमानन्दस्वरूप सर्वात्मा भगवान ही सदा आँखों के सामने रहें। वे आँखें ही न रहें जो तदन्य को देखना चाहें, वह हृदय ही टूक-टूक हो जाय जिसमें तदन्य का भाव, चिन्तन हो। अनन्य प्रेम से परिपूर्ण हृदय वह है जो भीतर से आप-ही-आप बोल उठता है-हे आराध्य देव! मुझे केवल तेरी ही अपेक्षा है, अन्य की नहीं। ज्ञान दृष्टि से देखने पर तुझसे अन्य कुछ है भी तो नहीं!

गोपियाँ भी भगवान श्रीकृष्ण के प्रेम में आकण्ठ डूबी हुई थीं। तभी तो भगवान ने उद्धव जी से कहा- उद्धव! और तो क्या कहूँ, मैं ही उनकी आत्मा हूँ। वे नित्य-निरन्तर मुझमें ही तन्मय रहती हैं।[1] इतना ही नहीं, भगवान श्रीकृष्ण तो यहाँ तक कहते है- उद्धव! मुझे तुम्हारे-जैसे प्रेमी भक्त जितने प्रियतम हैं, उतने प्रिय मेरे पुत्र ब्रह्मा, आत्मस्वरूप शंकर, सगे भाई बलराम जी, स्वयं अर्धांगिनी लक्ष्मी जी और मेरा अपना आत्मा भी नहीं है।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भागवत 10।46।6
  2. श्रीमद्भागवत 11।14।15

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